पिछले साल का बकाया गन्ना मूल्य अदा न हो पाने, कोरोना के प्रकोप और बिजली, डीज़ल आदि के बढ़ते शुल्क व मूल्यवृद्धि एवं उर्वरकों की कालाबाजारी से त्रस्त किसान परेशान होकर धरना, घेराव, रास्ता जाम जैसे उपायों को अपनाने को बाध्य है। दो दिन पूर्व बकाया गन्ना मूल्य अदा कराने की गर्ज से किसानों ने पशुओं को साथ लेकर पुलिस थानों पर प्रदर्शन किया था। नये पिराई सीजन के लिए सरकार ने 10 रुपये एफ.आर.पी मूल्य बढ़ाया है। भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष चौ. नरेश टिकैत ने इस मूल्यवृद्धि को नाकाफी बताते हुए कहा है कि उत्तरप्रदेश के गन्ना उत्पादकों को इसका कोई लाभ मिलने वाला नहीं। चौ. टिकैत ने सीधे-सीधे गन्ने का प्रति क्विंटल मूल्य 350 रुपये करने की मांग की है।
किसानों की ये समस्यायें आज की नहीं हैं। फसलों या कृषि उत्पादों का समय पर उचित मूल्य लेने के लिए किसान कई पीढ़ीयों से संघर्ष कर रहा है। न केवल गन्ना उत्पादक वरन अनाज, दलहन, तिलहन, कपास, फल-सब्जी व औषधीय वनस्पति आदि फसलें उपजाने वाले किसान साल दर साल संकटों, समस्याओं और तंगदस्ती से जूझते रहते हैं। लोकतांत्रिक प्रणाली में सरकारें बदलती रहती हैं लेकिन कोई सरकार किसान का भाग्य आज तक नहीं बदल पाई। ऐसे भी उदाहरण है कि जो कभी सरकार का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी था और टूटे फूठे मकान में रह रहा था, उसके बच्चे आज गजेटेड ऑफिसर बन चुके हैं और आलीशान कोठियों में रह रहे हैं। दूसरी ओर परिवार में सदस्यों की संख्या में वृद्धि के कारण भूमि का विखंड होता जा रहा है और खेती घाटे का सौदा बन गई है।
सरकार ने किसानों की आय बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाये है लेकिन योजनाओं का क्रियान्वयन तो सरकारी अमला ही करेगा जो केवल लूटखसोट और कागजों का पेट भरने में विश्वास रखते हैं। कोई सरकार आज तक अपने कर्मचारियों की जवाबदेही तय नहीं कर पाई। सरकारी तंत्र सरकार, किसान व जनता को गच्चा देने में माहिर है। भारतीय लोकतंत्र की एक बड़ी ख़ामी यह है कि जिस दल की सरकार होती है उसके कार्यकर्ता जनसेवक से वी.आई.पी बन जाते हैं। यदि भारतीय जनता पार्टी के मंत्री, विधायक एवं संगठन के नेता किसानों की समस्याओं का समाधान करना अपना पहला कर्तव्य समझते तो क्या मिल मालिकान किसानों का करोड़ों रुपया दबाके बैठे रहते या किसी अधिकारी अथवा दुकानदार की मजाल थी कि वह यूरिया का घोटाला करता। राजनीतिक जागरूकता या सक्रियता के बिना ज्यादा समय तक मोदी और योगी के जयकारों से काम चलने वाला नहीं है। नेतृत्व की इच्छाओं के अनुरूप कार्यकर्ताओं को मैदान में उतरना पड़ेगा। यह शोभनीय नहीं है कि किसान खेती में हाड़तोड़ परिश्रम करे और फसलों का मूल्य लेने के लिए सड़कों पर उतरे।
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’