आज यानि 3 सितंबर को देश के प्रख्यात नेता पंडित कमलापति त्रिपाठी का जन्मदिन है। वें 3 सितंबर 1905 को पं. नारायणपति त्रिपाठी के घर उत्पन्न हुए थे। पंडित जी 18 वर्ष की आयु में ही स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए। 1921 को पहली बार गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में जेल गए। फिर तो संघर्ष और जेल यात्राओं का सिलसिला शुरू हो गया। अपने करियर की शुरुआत वाराणसी के दैनिक ‘आज’ तथा ‘संसार’ में पत्रकारिता से की किन्तु अधिक दिनों कलम के सिपाही का काम न कर सके और जंगे आजादी के सिपाही बन गए। कवियत्री महादेवी वर्मा ने इस पर कहा था कि पंडित जी हमारी ही बिरादरी (यानि साहित्यकार) के हैं, राजनीति ने उन्हें हमसे उधार ले लिया है।
पहली बार 1937 में उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष बने। फिर तो लगातार विधायक एवं राज्यसभा, लोकसभा के लिए निर्वाचित होते रहे। देश के आजाद होने पर सन 1952 में सूचना मंत्री, शिक्षा मंत्री बने। इसके पश्चात उत्तरप्रदेश के उप मुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री, केंद्र में कैबिनेट मंत्री रहे। कांग्रेस संगठन में भी त्रिपाठी निष्ठापूर्वक सक्रिय रहे। अ.भ.कांग्रेस कार्य समिति, संसदीय दल, उत्तरप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष तथा संगठन में अन्य ज़िम्मेदारियों का निष्ठापूर्वक निर्वहन किया।
पं. कमलापति त्रिपाठी प्रखर राष्ट्रवादी, सिद्धांतप्रिय, राष्ट्रभाषा हिन्दी के कट्टर समर्थक व स्पष्टवादी तथा कांग्रेस के प्रति समपर्ण भाव से काम करने वाले नेता थे। अपने कार्यकाल में उन्होंने जनता जनार्दन की भरपूर सेवा की। प्रदेश में सिंचाई सुविधाओं तथा विद्युत लाइनों व रेल सेवाओं का विस्तार करने में उनके महत्वपूर्ण योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
जहां तक पंडित जी के सिद्धांत प्रियता का प्रश्न है, अपने विचारों और सिद्धांतों पर वे अडिग रहे। कांग्रेस संगठन में नेहरू गांधी खानदान का आधिपत्य होने के कारण उन्हें इसका दंश भी भोगना पड़ा। इंदिरा गांधी के दिवगंत होने पर राजीव गांधी को चाटुकारों और चिरकुट टाइप नेताओं ने घेर लिया। कांग्रेस के दिग्गज एवं निष्ठावान, प्रतिष्ठित नेताओं का अपमान होने लगा। के.के.तिवारी, मारग्रेट अल्वा जैसे छीछोरे चमचे राजीव गांधी के इशारे पर वरिष्ठ नेताओं पर फब्तियां कसते थे और शब्दबाण चला कर उनकी भावनाओं को आहत करने लगे। उनकी जद में दो दिन पहले दिवगंत हुए प्रणव मुखर्जी भी आ गए। पं. कमलापति त्रिपाठी को इससे बहुत ठेस पहुंची। उन्होंने राजीव गांधी को एक बहुत सख्त चिट्ठी लिखी और मर्यादाओं के पालन की सीख दी। पंडित जी के सदपरामर्श का लाभ उठाने के बजाय राजीव गांधी ने उल्टे उन्हें ही तिरस्कृत व अपमानित करना शुरू कर दिया। यहां तक कि उनके बड़े पुत्र लोकपति त्रिपाठी को उ.प्र.कांग्रेस संसदीय दल में पूर्ण बहुमत होते हुए भी मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया।
पं. कमलापति त्रिपाठी सिद्धांतों के प्रति पूर्ण निष्ठा रखते थे। उन्होंने राजभाषा के प्रश्न पर पं. जवाहर लाल नेहरू के विरूद्ध वोट दिया। प्रमुख समाजवादी चिंतक आचार्य नरेन्द्रदेव तथा हेमवती नंदन बहुगुणा के विरूद्ध चुनाव प्रचार करने से साफ इंकार कर दिया किन्तु जब लखनऊ से शीला कौल को कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया तो अपने पुत्र मायापति त्रिपाठी के खिलाफ श्रीमती कौल के पक्ष में खुल कर प्रचार किया। घोर अपमान होने पर भी वे चुप और शांत रहे।
‘देहात’ के संपादक स्वर्गीय राजरूप सिंह वर्मा के साथ उनकी पत्रकार के रूप में गहरी जान पहचान थी। वें विधानसभा के तत्कालीन अध्यक्ष प्रोफेसर वासुदेव प्रसाद सिंह के साथ ‘देहात भवन’ भी पधारे थे।
हाईकमान के अपमानजनक रवैया के बावजूद उन्होंने मीडिया में जाकर पार्टी की छीछालेदर नहीं कराई। उनके अंतिम दिन नेहरू-गांधी वंशवाद की कुटिलता के कारण घोर अवसाद, संत्रास में गुजरे। एक पत्रकार ने उनसे पूछा – ‘पंडित जी क्या कर रहे हैं!’ उन्होंने हसकर उत्तर दिया – ‘इससे पहले कि समय मुझे मारे, मैं समय को मार रहा हूं।’ नेहरू गांधी परिवार के वंशवाद ने पार्टी के अनेक हीरे-मोतियों को तिरस्कृत किया और नाली के पत्थरों को सिर पर बैठाया। आज भी यही हो रहा हैं। कांग्रेस की शायद यही नियति है।
पंडित जी के जन्मदिन पर हम उन्हें विनम्र श्रद्धाभाव से उनकी स्मृति को नमन करते हैं।
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’