अंततः सारी हेकड़ी भूलकर तीन मास की जेल काटने और तीन वर्षों के लिए प्रेक्टिस पर रोक की सजा से बचने के लिए प्रशांत भूषण को एक रुपया जुर्माना ट्रेजरी में जमा ही करना पड़ा। अनेक वर्षों से लोकतंत्रीय एवं न्यायिक संस्थाओं पर प्रहार कर खुद को आत्मा की आवाज और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर सनसनी फैला कर लोकप्रियता बटोरने के हथकंडे अपनाये जा रहे थे। उनका एक ही एजेंडा है, शिखर पर प्रहार करो और चुप हो जाओ। बाकी काम उनके गिरोह के भाई लोग करेंगे।
इस देश की 135 करोड़ की आबादी में कुछ हजार नहीं, कुछ लाख लोग ऐसे हैं जो प्रशांत भूषण की विचारधारा के अनुयायी हैं क्योंकि वे मानते हैं कि इससे स्वार्थसिद्धि में कामयाबी मिलेगी। लोकतंत्र, जनहित, भाईचारा, धर्मनिरपेक्षता आदि ऐसे शब्द हैं जो कानून की दुधारी तलवार चलाने में काम आते हैं। विशेषरूप से खुद को बुद्धिजीवी कहलाने वाले एक ख़ास वर्ग के लोग प्रशांत भूषण के अभियान को आगे बढ़ाने में मदद करते हैं और न्यायपालिका के शिखर पर हमला होते देख तालियां बजाते दिखाई देते हैं। प्रशांत भूषण एक, दो, चार नहीं, अनेक मुख्य न्यायधीशों को भ्रष्ट बताकर स्वयं को सच्चा और स्पष्टवादी सिद्ध करना चाहते हैं। उनके जैसे उनके कुछ पैरोकार उन्हें सत्याग्रही और महात्मा गांधी बताने पर भी उतर आए।
भारत में जिस प्रकार राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है, प्रशासनिक लूटखसोट, बंदरबांट और हर क्षेत्र में विशेषकर राजनीति एवं कार्यपालिका में चौधराहट व ख़ुदमुख़त्यारी की प्रवृत्ति बढ़ रही हैं, उसमे सबल, निष्पक्ष एवं दबाव रहित स्वतंत्र न्यायपालिका का होना अति आवश्यक है। कम से कम सुप्रीम कोर्ट एवं हाईकोर्ट की प्रतिष्ठा तथा मानमर्यादा की तो रक्षा आवश्यक नहीं, अनिवार्य है। प्रशांत भूषण अनवरत लोकतंत्र के प्रमुख आधार पर निहित स्वार्थवश प्रहार कर रहे थे। यदि उन्हें उनके किये की सज़ा न मिलती तो वे अधिक उद्दंडता से न्यायपालिका को बेइज्जत करते। वैसे वे पहले भी अपनी गलत हरकतों के लिए 5-6 बार माफी मांग कर बच निकले थे। न्यायालय ने एक रुपये का प्रतीतात्मक जुर्माना लगा कर उच्छृंखल लोगों को हद में रहने का सबक दिया है।
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’