बाबा नागार्जुन- वह क्षणिक मुलाकात मेरी अमूल्य निधि है!

मैथली, हिंदी, बांग्ला के महान गद्य-पद्य रचनाकार बाबा वैद्यनाथ मिश्र नागार्जुन को साहित्य में रुचि रखने वाला कौन नहीं जानता। मैं उनका परिचय तथा व्यक्तित्व का निरूपण करने की औपचारिकता नहीं निभाऊंगा। सिर्फ यह बताने की उत्कंठा हृदय में है कि भारत की ग्रामीण संस्कृति के प्रतीक पुरुष के दर्शन कर मैं भी कृतार्थ हुआ हूँ।

मुज़फ्फरनगर के सनातन धर्म महाविद्यालय के प्राचार्य डॉक्टर विश्वनाथ मिश्र उच्चकोटि के शिक्षाविद थे। मृदुभाषी और मितभाषी, मिलनसार व्यक्तित्व के धनी थे। उन्हें प्रगतिशील विचारों तथा रूढ़िवाद का विरोधी भी माना जाता था। कुछ लोग तो उन्हें कम्युनिस्ट भी बता देते थे किन्तु वे आज के एजेंडावादी वामपंथियों से हट कर खुली सोच वाले सज्जन थे। डॉक्टर मिश्र ने बाबा नागार्जुन को अपनी एक गोष्ठी में निमंत्रित किया था। गोष्ठी में अपनी प्रस्तुतियां देने वाले और भी महानुभाव थे किन्तु सभी श्रोता बाबा जी के पीछे पड़े हुए थे। उन्होंने एक के बाद एक अनेक रचनाएँ सुनाई किन्तु बिहार के सूखे की विभीषिका पर लिखी उनकी कालजयी रचना ‘कई दिनों तक चूल्हा रोया’ की बार- बार मांग उठ रही थी। बाबा बोले- सुनाऊंगा, लेकिन बाद में, पहले यह ताज़ा रचना सुनो। गोष्ठी में और भी वक्ता थे लेकिन बाबा एकल वक्ता बन गए।

उन्हें दिल्ली शीघ्र लौटना था, गोष्ठी के बीच में से ही उठकर चल दिए। मैंने देखा कोई मंच से उतरने में भी सहायता नहीं दे रहा है, द्वार तक छोड़ने की औपचारिकता तो दरकिनारे रही। मैं उनके पीछे-पीछे बाहर निकला। धीरे-धीरे गेट की ओर बढ़ रहे थे। मैंने आगे बढ़कर चरण छुवे। बोले- पढ़ते हो? मैंने कहाँ- नहीं, पत्रकार हूँ। फिर बोले कौन से अखबार में? मैंने कहाँ- हमारा अपना ही अखबार है – देहात! अच्छा ‘देहात’ ! उन्होंने न कभी ‘देहात’ अखबार देखा था, न पढ़ा था किन्तु देहात नाम सुनकर उनके चेहरे पर अजीब सी चमक तैर गयी। हम दोनों मुख्य द्वार से निकल सड़क पर खड़े थे। वे बोले- बेटा मुझे दिल्ली अड्डा जाना है इतने में एक रिक्शा चालक आता दिखा। उसने समीप आकर रिक्शा रोकी। मैंने कहाँ कि बाबा जी को रोडवेज बस अड्डा जाना है। तब भोपा रोड वाला ओवरब्रिज नहीं बना था। रिक्शा में बैठे तो मैंने फिर चरण स्पर्श किये। बिना कुछ बोले दोनों हाथ सिर पर रख दिए। मेरे जीवन के ये अद्भुत क्षण थे। दो तीन मिनटों की इस भेंट को मैं अमूल्य निधि की तरह संभाल कर रखे हुए हूँ।

दूसरी बार हुईं भेंट को मैं भेंट नहीं कह सकता। वह भेंट नहीं, दर्शन मात्र थे। मेरी बहन प्रवीण व बहनोई मनोज दिल्ली के करावलनगर सादतपुर एक्सटेंशन में रहते हैं। उनके मकान से दूसरी गली में बाबा नागार्जुन अपने छोटे बेटे श्रीकांत मिश्र के साथ रहते थे। एक हॅसमुख और बुजुर्ग के नाते मौहल्ले के अन्य लोगों की तरह मनोज भी उनसे हिले-मिले रहते थे। मनोज व अन्य मौहल्लावासी उन्हें गांव का सीधासादा मिलनसार इंसान समझकर घुले मिले रहते। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने उन्हें हिंदी अकादमी का पुरस्कार लेने बुलाया तो बाबा ने दिल्ली जाने से इंकार कर दिया, शीला जी खुद ही सादतपुर पहुंची तो मौहल्लेवासियों को उनके कद और रुतबे का एहसास हुआ।

फ़रवरी 1994 में जब मनोज के पास पहुंचा तो बाबा से मिलने की इच्छा जाहिर की। हम दोनों बाहर निकले तो देखा कि बाबा अपनी छोटी सी चारपाई को फोल्ड करके कंधे पर धरे हुए एक थ्रीविलर वाले से बात कर रहे हैं। बगल में दरी व चादर दबी हुईं थी। मनोज को पहचानते थे। बोले- जा रहे हैं। दोनों ने प्रणाम किया। वे ऑटोरिक्शा में बैठकर चले गए। सड़क की ये मुलाकात भी अनोखी यादगार हैं।

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here