प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा हो या कांग्रेस दोनों ही दल परिवारवाद की छाया से बाहर नहीं निकल पाए

चुनावी राजनीति में परिवारवाद हमेशा से ही बड़ा मुद्दा रहा है। लेकिन इस मुद्दे के बावजूद राजनीति में परिवारवाद हावी है। प्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा हो या कांग्रेस दोनों ही दल परिवारवाद की छाया से बाहर नहीं निकल पाए हैं। फायदा लेने के लिए सियासी दलों ने भी परिवारवाद को जब चाहा अपनाया और जब चाह इस मुद्दे पर सियासत भी की।  विरासत की इस सियासत के दम पर राजनीति कर रहे उत्तराधिकारी टिकट की चाहत कर रहे हैं। अमर उजाला ने विरासत की सियासत की पड़ताल की। पेश है ये रिपोर्ट:-

परिवारवाद की छाया से भाजपा भी महफूज नहीं
परिवारवाद की राजनीति के मामले में कांग्रेस साफ्ट टारगेट रही है। भाजपा ने इस मुद्दे पर कांग्रेस पर हमेशा प्रहार किए। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि वह खुद परिवारवाद की छाया से महफूज नहीं रह पाई। उत्तराखंड के उपचुनाव इतिहास साक्षी है कि जब-जब भाजपा के सामने नया उत्तराधिकारी के चुनाव का अवसर आया, उसे राजनीतिक फायदा लेने के लिए परिवार के सदस्य को ही चुना। 

लेकिन उपचुनाव से हटकर भाजपा में विरासत की सियासत उतनी ही फली-फूली है जितनी कांग्रेस में। इसकी दर्जनों मिसालें हैं। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मेजर जनरल बीसी खंडूड़ी (सेनि) का ही प्रभाव था कि उनकी बेटी ऋतु खंडूड़ी को यमकेश्वर से टिकट मिला और वह चुनाव जीतीं। वह एक बार फिर चुनाव मैदान में हैं। थराली में पार्टी के विधायक मगन लाल शाह के निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत उनकी पत्नी मुन्नी देवी देख रहीं। ठीक वैसे ही पूर्व कैबिनेट मंत्री प्रकाश पंत की पत्नी चंद्रा पंत और विधायक स्व. सुरेंद्र सिंह जीना के भाई महेश जीना भी विरासत की सियासत संभाल रहे हैं।

गंगोत्री सीट पर विधायक रहे स्व. गोपाल रावत की पत्नी शांति रावत और कैंट सीट पर विधायक रहे स्व. हरबंस कपूर की पत्नी सविता कपूर भी टिकट की आकांक्षी बताई जा रही हैं। पार्टी के वरिष्ठ विधायक हरभजन सिंह चीमा के बेटे त्रिलोक सिंह चीमा, कैबिनेट मंत्री बंशीधर भगत के बेटे विकास भगत, पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी के भतीजे दीप कोश्यारी, पूर्व सांसद स्व. बची सिंह रावत के बेटे शशांक रावत, विधायक कुंवर प्रणव चैंपियन की पत्नी देवयानी भी चुनाव में टिकट के लिए जोर लगा रहे हैं। कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत की पुत्र वधू अनुकृति लैंसडौन से चुनाव लड़ना चाहती हैं। 

कोई नहीं चूका पांव जमाने का मौका
विरासत में मिली सियासत में पांव जमाने का जिसे भी मौका मिला, वह नहीं चूका। पूर्व मंत्री नारायण सिंह राणा के सियासी प्रभाव से निशानेबाज जसपाल राणा ने पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े। बेशक राजनीतिक विरासत को वह आगे नहीं बढ़ा सके। कैबिनेट मंत्री गणेश जोशी की बेटी नेहा जोशी भाजपा की सक्रिय नेत्री हैं और भाजयुमो की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी निभा रही हैं। विधायक मुन्ना सिंह चौहान की पत्नी मधु चौहान जिला पंचायत अध्यक्ष हैं और 2017 में चकराता सीट से चुनाव लड़ी थीं। हरक सिंह रावत की पत्नी दीप्ति पौड़ी जिला पंचायत की अध्यक्ष रहीं। ऐसे कई और नाम हैं जो अपने संगठन के लंबे और थका देने वाले रास्ते के बजाय पिता या रिश्तेदारों की सियासी विरासत के शार्टकट मार्ग से पांव जमाना चाहते हैं।

उत्तराखंड की सियासत में तमाम नेताओं को विरासत में मिली राजनीति

उत्तराखंड विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस पार्टी एक-दो दिन में अपनी पहली सूची जारी कर देगी। बताया जा रहा है कि आर्य पिता-पुत्र को अपवाद स्वरूप छोड़कर पार्टी ने एक परिवार-एक टिकट का फामूर्ला तय किया है। लेकिन उत्तराखंड की सियासत विरासत को सींचती रही है। यहां तमाम ऐसे नेता हुए हैं, जो अपनी सियासी जमीन अपने बच्चों या अन्य परिजनों को सौंपकर गए हैं। दूसरी फेहरिस्त उन नेताओं की है, जो वक्त रहते नई पीढ़ी को राजनीति के मैदान में जमा देना चाहते हैं। 

उत्तराखंड कांग्रेस में तमाम नेता ऐसे हुए हैं, जिन्हें राजनीति विरासत में मिली है। पूर्व विधायक और मंत्री नवप्रभात के पिता ब्रह्मदत्त कई बार विधायक और केंद्रीय मंत्री रहे। दूसरा नाम प्रीतम सिंह का है, जिन्हें राजनीतिक विरासत अपने पिता गुलाब सिंह से मिली। बताया जा रहा है कि अब वह अपने बेटे अभिषेक सिंह को राजनीति के मैदान में उतारना चाहते हैं। जबकि उनके भाई चमन सिंह पहले से ही सक्रिय राजनीति में हैं। इसके अलावा देहरादून की मेयर और राज्यसभा सदस्य रहीं मनोरमा डोबरियाल शर्मा की राजनीतिक विरासत को उनकी पुत्रवधु आशा मानोरमा डोबरियाल संभाल रही हैं। वह भी इस बार टिकट की दौड़ में शामिल हैं। पूर्व मंत्री यशपाल आर्य अपने बेटे संजीव आर्य को पहले ही मैदान में उतार चुके हैं। पूर्व विधायक रंजीत रावत के पुत्र विक्रम रावत वर्तमान में ब्लाक प्रमुख हैं। अब वह उन्हें विधायकी का टिकट दिलाना चाहते हैं। 

कर्णप्रयाग से अनुसूया प्रसाद मैखुरी की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी सावित्री भी टिकट की दौड़ में शामिल हैं, वह अपने पति की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाना चाहती हैं। वहीं, दूसरी तरफ कद्दावर नेता रहीं इंदिरा हृदयेश के पुत्र सुमीत हृदयेश अपनी मां की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाते हुए इस बार चुनाव में ताल ठोकने जा रहे हैं। विधायक ममता राकेश पहले से ही अपने पति सुरेंद्र राकेश की राजनीतिक विरासत संभाल रही हैं। महिला कांग्रेस की अध्यक्ष और महिला आयोग की अध्यक्ष रहीं सरोजनी कैंतुरा अपनी पुत्रवधु ब्लाक प्रमुख रूचि कैंतुरा के लिए टिकट मांग रही हैं। यूपी और उसके बाद उत्तराखंड की अंतरिम विधानसभा में विधायक रहे काजी मुउद्दीन के बेटे विधायक काजी निजामुद्दीन भी उत्तराखंड की राजनीति में सफल पारी खेल रहे हैं। वहीं पूर्व सीएम बीसी खंडूड़ी के बेटे मनीष खंडूड़ी और पूर्व मंत्री तिलक राज बेहड़ के बेटे सौरव बेहड़ भी अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत करने के अभियान में लगे हैं।  

हरीश के परिवार से राजनीति के चार दावेदार 
पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस चुनाव अभियान की कमान संभाल रहे हरीश रावत के परिवार की अगर बात करें तो चार नाम सामने आते हैं। पहला नाम उनकी पत्नी रेणुका रावत का है, जो सक्रिय राजनीति में तो नहीं हैं, लेकिन वर्ष 2014 में हरिद्वार से लोकसभा का चुनाव लड़ चुकी हैं। दूसरा नाम उनके बड़े बेटे वीरेंद्र सिंह रावत का है। जो खटीमा में एक स्कूल और बीएड कॉलेज चलाते हैं, लेकिन सक्रिय राजनीति में उतरना चाहते हैं। हरीश रावत के हरिद्वार से सांसद रहते हुए उस वक्त उनका कामकाज वीरेंद्र ही देखते थे। तीसरा नाम आता है छोटे बेटे आनंद रावत का जो यूथ कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे चुके हैं और वर्तमान में प्रदेश कांग्रेस कमेटी में महामंत्री के पद पर हैं। चौथा नाम आता है बेटी अनुपमा रावत का। जो वर्तमान में अखिल भारतीय महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव हैं। बताया जा रहा है कि हरीश रावत अपने इन तीन बच्चों में से किसी को इस विस चुनाव में उतार सकते हैं। 

परिवारवाद के राजनीति में नफा-नुकसान 
कांग्रेस पार्टी परिवारवाद को लेकर हमेशा से भाजपा के निशाने पर रही है। विशेषकर जब भी राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की बात आती है तो भाजपा गांधी परिवार को केंद्र में रखकर हमेशा कांग्रेस पर वार करती रही है। यह बात अलग है कि भाजपा में भी तमाम ऐसे नेता हुए हैं, जिन्होंने खुद परिवारवाद को बढ़ावा दिया। दूसरी तरफ नेताओं के बच्चों के राजनीति के मैदान में उतरने का पार्टियों को लाभ भी होता है। नई पीढ़ी के यह नेता बचपन से राजनीतिक महौल में पले-बड़े होते हैं। ऐसे में तमाम बातें वह वक्त से पहले ही सीख जाते हैं। दूसरी तरफ उन्हें समर्थकों की एक बड़ी भीड़ विरासत में मिल जाती है

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