चुनावी हथकंडे और अदालत !

भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां कहीं न कहीं जन प्रतिनिधि चुनने के लिए कभी पंचायतों के, कभी स्थानीय निकायों के, कभी विधानमंडलों के, तो कभी संसद के और कभी सहकारी समितियों के चुनाव होते रहते हैं। राजनीतिक दलों के नेता चुनावों को ‘लोकतंत्र का पर्व’ बताते हैं। इस लोकतंत्र के पर्व की विडम्बना यह है कि ये ही नेता एक दूसरे पर चुनाव में धांधली, सरकारी, मशीनरी के दुरुपयोग, जातिवाद, धन बल और बाहुबल के प्रयोग के आरोप जढ़ते हैं।

चुनावों में सफलता के लिए जातिवाद का सहारा लेने की प्रथा के विरुद्ध मोतीलाल यादव नामक एक नागरिक ने सन् 2013 में इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में एक जनहित याचिका डाली थी।

याची ने बताया था कि आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश के 40 जिलों में ‘ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन’ आयोजित किये थे। समाजवादी पार्टी ने प्रदेशभर में मुस्लिम सम्मेलन बुलाये थे। याची का कहना था कि राजनीतिक दल लोगों को जातिगत आधार पर भड़का कर समाज की समरसता को तहस-नहस कर रहे हैं, अत: इस पर कानूनन रोक लगे। मोतीलाल यादव की याचिका को स्वीकार करते हुए 11 जुलाई 2013 को हाई कोर्ट ने समूचे उत्तर प्रदेश में जातीय सम्मेलन बुलाने पर रोक लगा दी थी।

11 नवंबर, 2022 को इस मुद्दे पर आगे विचार के लिए जस्टिस राजेश बिंदल व जस्टिस जसप्रीत सिंह की पीठ ने सभी पक्षों को बुलाया किन्तु अदालत में कोई हाज़िर नहीं हुआ। हाईकोर्ट ने कांग्रेस, भाजपा, बसपा, सपा को अब 15 दिसंबर को उपस्थित होने का नोटिस दिया है। इससे सिद्ध होता है कि राजनीतिक दल लोकतंत्र के पर्व को कैसे मनाना चाहते हैं।

गोविंद वर्मा
संपादक ‘देहात’

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