दलित वोटों की खातिर !

जिन नेताओं की राजनीति ख़ालिस जातीय गुणा-भाग पर आधारित है और जो जीवनभर जातीय समीकरणों की चौपड़ बिछाने में जुटे रहते हैं, वे चुनाव आने से पहले ही जोरशोर से जातीय गठजोड़ की जुस्तजू में लग जाते हैं।

ताजा उदाहरण अखिलेश यादव का है। उनके पिताश्री मुलायम सिंह यादव और बिहार के यादवी नेता लालू प्रसाद यादव जिन्दगी भर एम.वाई यानी मुस्लिम-यादव गठबंधन की राजनीति करते रहे। पूरा देश जानता है कि लालू प्रसाद यादव और उनके दर्जा नौ फेल लाल ने खूंखार गुंडे शहाबुद्दीन को कैसे संरक्षण दिया। सिर्फ मुस्लिम वोटों की खातिर। तेजस्वी तो जेल में बन्द शाहबुद्दीन से जेल जाकर मिलते थे। यादव परिवार के एम.वाई गठबंधन का इतना जलवा था कि शाहबुद्दीन की रिहाई पर जेल अधिकारियों ने कारागार के फाटक खोल दिये और कतार में खड़े हो कर बैंड बाजों के साथ उस माफिया को सलामी दी। शाहबुद्दीन को एक हजार कारों के काफिले के साथ ढोल ढपड़ों व गाजेबाजे सहित जेल से बाहर लाया गया था।

उत्तर प्रदेश में यादव परिवार एम.वाई गठबंधन की जड़ों को कैसे सींचता रहा और कैसे अतीक व मुख्तार जैसे दुर्दान्त माफियाओं को खुला संरक्षण दिया जाता रहा, यह किसी से छिपा नहीं है। अब बदली हुई राजनीतिक परिस्थिति में बिहार व उत्तर प्रदेश के यदुवंशियों को समझ आ गई है कि केवल मुस्लिम वोटों के सहारे वे सत्ता के सिंहासन को नहीं कब्जा सकते। यही कारण है कि कभी ब्राह्मणों को अतिवाद का पोषक और पिछड़ों का शोषक बताने वाले यादव नेता ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन बुलाने लगे और भगवान परशुराम की मूर्ति के आगे सिर नवा कर पुष्पांजलि अर्पित करने लगे।

अब इनके हृदय में अचानक दलितों के प्रति प्रेम उमड़ आया तो राम चरितमानस लिखने वाले गोस्वामी तुलसीदास को मानवता का कलंक बता कर ब्राह्मणों की निन्दा करने लगे। करोड़ों हिन्दुओं की आस्था की परवाह न करते हुए अपने चेलों के जरिये रामचरित मानस की प्रतियां फड़वाई और फुकवाईं। जिन कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की थी, अचानक अखिलेश यादव को उन ‘मान्यवर’ की महानता का ध्यान आया। 2 अप्रैल को रायबरेली पहुंच कर कांशीराम की मूर्ति के आगे सिर नवाया। कहा- मान्यवर जी के सारे शिष्य हमारे साथ हैं, अब हम मुलायम सिंह व कांशीराम के स्वप्नों को साकार करेंगे। खुद को पक्का दलितों का पक्का समर्थक सिद्ध करने को ‘मिले मुलायम- कांशीराम, हवा में उड़‌ गए जय श्री राम’ के हंसते-हंसते नारे लगवाये।

अब दलित वोट बैंक में सेंध लगाने के मकसद से कांशीराम के जन्मस्थल महू (मध्यप्रदेश) जा रहे हैं जहां 14 अप्रैल को बाबा भीमराव अम्बेडकर की जयन्ती पर दलित नेता जुटेंगे। अखि लेश अपने साथ जयन्त चौधरी और खुद को मायावती का प्रतिद्वंदी बताने वाले चन्द्रशेखर रावण को भी ले जायेंगे।

अखिलेश ने 2 अप्रैल को कांशीराम की मूर्ति का अनावरण किया तो पहली अप्रैल को मायावती ने कहा कि यदि 1995 में गैस्ट हाउस कांड न होता तो मान्यवर कांशीराम द्वारा कराया गया बसपा-सपा गठबंधन आज सारे भारत पर राज कर रहा होता।

जो आज मुस्लिमों के साथ साथ दलितों के नाम पर नथा राजनीतिक जोड़ बनाना चाहते हैं उन्हें दलितों की भावनाओं को भी टटोलना चाहिये। दलितों के साथ यादव-जाट बहुल इलाकों में कैसा व्यावहार हुआ है ? लोकतंत्र-लोकतंत्र चिल्लाने वाले नेता कैसे दलितों के वोटों पर डाका डालते रहे, यह आसानी से भुलाने वाली बात नहीं। बाहुबलियों के प्रभाव क्षेत्रों में आज भी दलित शोषित-पीड़ित हैं। पग्गड़‌धारी आज भी इन्हें दलित, जाटव, जटिया कह कर नहीं सम्बोधित करता, अपमान जनक जातीय शब्द से पुकारता है। दलितों के वोट चाहने वाले ये लोग जब चाहे तब बाबा अम्बेडकर की मूर्ति खंडित करा देते हैं। क्या दलित समाज 21वीं सदी में इतना मुर्ख रह गया है कि वह अपने नकली व असली हमदर्दों को पहचान नहीं सकता?

गोविंद वर्मा
संपादक ‘देहात’

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