इसे मैं कैराना से आरम्भ करता हूं। कुछ दशकों पहले कैराना में शायर और पत्रकार देवीचन्द ‘बिस्मिल’ हुए हैं। मुझे उनकी छवि आज तक याद है, यद्यपि मैंने लगभग पांच दशकों पहले उनके दर्शन किये थे। उन्होंने कई पुस्तकें, जो राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत थीं, लिखी थीं जिनमें एक पुस्तक ‘वीर हकीकत राय’ भी थी। वे एक हफ्तेवार अखबार ‘ज़रूरत’ भी प्रकाशित करते थे। यह एक नाटक के रूप में लिखी पुस्तक थी जिसमें सियालकोट (अब पाकिस्तान) के 14 वर्षीय बालक की इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा पैगम्बरे इस्लाम के अपमान का झूठा आरोप लगा कर क्रूरता से हत्या करने का हृदयविदारक वर्णन था।
‘बिस्मिल’ साहब की पुस्तक में काल्पनिक घटनाओं का कथानक नहीं था अपितु सत्य घटनाओं पर आधारित था। सियालकोट के प्रतिष्ठित व्यापारी लाला बागमल पुरी के पुत्र हकीकत राय का जन्म 8 नवम्बर 1719 में हुआ था। वे बहुत कुशाग्रबुद्धि थे। संस्कृत, इतिहास आदि की पढ़ाई पूरी करने पर उन्हें फारसी पढ़ने के लिए एक मौलवी के पास भेजा गया। वे कक्षा के सबसे होशियार छात्र थे। मौलवी इस कारण उनका स्नेह करता था। कक्षा में ज्यादा संख्या मुस्लिम छात्रों की थी लेकिन वे पढ़ने-लिखले में फिसड्डी थे। सभी हकीकत से चिढ़ते थे और उनसे लड़ते-झगड़ते रहते थे। हकीकत राय को नीचा दिखाने के लिए इन्होंने हिन्दू देवी-देवताओं को गालियां देनी शुरू कर दीं। अपने स्वभाव के अनुकूल हकीकत शान्त रहे। हकीकत सिन्धी परिवार से आते थे। मुसलमान छात्रों ने भगवान झूलेलाल को गालियां देना चालू रखा। हकीकत ने कहा यह ठीक नहीं है। यदि मैं आपके पैगम्बर के सम्मान में ऐस ही कहूं तो तुम्हें कैसा लगेगा? मुस्लिम छात्रों ने कहा कि तुम्हारी हिम्मत है कि कुछ कहो। झगड़ा बढ़ने पर मुस्लिम छात्र मौलवी के पास गये और कहाकि हकीकत नबी व बीबी फातमा को गालियां दे रहा है। मौलवी समझदार था। उसने इसे बच्चों का विवाद बता कर मामले को निपटाना चाहा लेकिन मुस्लिम छात्रों के वाल्देन ने सारे शहर में हंगामा बरपा कर दिया। मुल्ला, मौलवी और हजारों कठमुल्ले हकीकत और उनके माता-पिता को पैदल ही लाहौर ले गये। उस समय मुगल बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला दिल्ली तख्त का मालिक था। पंजाब का शासक नवाब बकरिया खान था। लाहौर सहित पूरे पंजाब में मुस्लिमों की जुल्म-ज्यादतियों का दौरदौरा था। लाहौर का मुख्य काजी आदिल बेग था। उसे साफ पता चल गया कि हकीकत निर्दोष है और हिन्दू होने के नाते उसे फंसाया जा रहा है लेकिन कट्टरपंथी मुल्ला मौलवी नबी के अपमान का नाम लेकर अपना दबदबा कायम करने के लिए हकीकत की हत्या की मांग कर रहे थे। उन्होंने आदिल बेग को धमकाया कि तुमने उसे झोड़ दिया तो तुम भी काफिर माने जाओगे। हकीकत के माता-पिता की फरियाद पर शहर काज़ी ने कहाकि अपने बेटे को कहो कि वह कलमा पढ़ कर इस्लाम कबूल करले तो हम जान बख्श देंगे किन्तु हकीकत ने साफ इंकार कर दिया। हकीकत से काजी ने पूछा- इस्लाम कबूल करते हो? उसने इंकार कर दिया और बोला कि गैर मजहब के लोगों से हसद रखने वालों के धर्म में जाने के बजाय मैं हिन्दू रह कर मरना पसन्द करूंगा। उसे जमीन में आधा गाड़ दिया गया। अल्ला-हू-अकबर और या नबी या नबी के नारे लगाते हुए जुनूनी मुसलमानों की भीड़ ने चारों तरफ से पत्थर बरसाने शुरू कर दिये। बेहोशी से पहले हर पत्थर पर हकीकत राम का नाम लेता रहा। बेहोश होकर गिर पड़ने के बाद शहर काजी के हुक्म से हकीकत का सिर धड़ से जुदा कर दिया गया। 8 फरवरी, 1734 को उनकी शहादत हुई थी। वीर हकीकत राय के संस्कार स्थल कोट खोजासईद में उनकी समाधि बनाई गई। यह भी भुलाने की बात नहीं कि हकीकत की शहादत के बाद उनकी पत्नी ने दरिया में कूद कर जान दे दी थी।
सन् 1734 से 2022 तक हिन्दुस्थान में बदला क्या है? किसी ने पूछा है कि नूपुर शर्मा के वास्तविक शब्द क्या थे और किसके चिढ़ाने पर ये शब्द बोले गए? आज देश में चारों तरफ सियालकोट ही सियालकोट हैं। वे ही बकरिया खान और काजी आदिल बेग हैं, तास्सुबी मुसलमानों की वही भीड़ है। फर्क सिर्फ इतना है कि दिल्ली के तख्त पर मुहम्मद शाह रंगीला नहीं, नरेन्द्र मोदी बैठा हुआ है।
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’