परमपिता परमात्मा की मुझ पर बड़ी अनुकम्पा रही कि मुझे समाज के श्रेष्ठ महापुरुषों का आशीर्वाद, प्रेम, सानिध्य एवं उनकी कुछ सेवा करने का सुअवसर अपने पूज्य पिताश्री राजरूप सिंह वर्मा के माध्यम से प्राप्त हुआ। इन्हीं महान विभूतियों मे एक विभूति के रूप में थे स्वर्गीय वीरेंद्र वर्मा जिन्होंने न केवल मुजफ्फरनगर जनपद की वरन पूरे देश-प्रदेश की निष्काम भाव से सेवा की।
मैं यहां भाई उमादत्त शर्मा जी एवं चौ. देवी सिंह जी के प्रति आभार प्रकट करना चाहता हूं कि उन्होंने वीरेंद्र वर्मा विचार मंच के माध्यम से आदरणीय वर्मा जी की स्मृतियों को जीवन्त रखा हुआ है।
मुझे किशोर अवस्था से प्रौढ़ अवस्था तक आदरणीय वीरेंद्र वर्मा के सानिध्य का सौभाग्य मिला। उनके दस-बीस नहीं अपितु सैकड़ों कार्यक्रमों को कवर करने का मुझे अवसर मिला। एक घटना को मैं यहां याद करना चाहता हूं।
सन् 1962 में चीन के आक्रमण के समय सरकार ने स्वर्णदान एवं आर्थिक सहयोग का अभियान चलाया हुआ था। वर्मा जी सैनिक भवन में आयोजित इस दान शिविर में मुख्यकर्ता के रूप में उपस्थित थे। नगर के गणमान्य लोग अपनी सहयोग राशि की घोषणा कर रहे थे। वर्मा जी ने देखा कि भीड़ के अंतिम छोर पर मैले-कुचैले कपड़े पहने एक व्यक्ति बार-बार मंच की ओर हाथ उठाकर कुछ कह रहा था। वर्मा जी की दृष्टि उस पर पड़ी तो उन्होंने कहा- यह आदमी कुछ कहना चाहता है, इसे यहां ले आओ। वह दीनहीन दिखने वाला शख्स वर्मा जी के पास आकर बोला- “मैंने लाउडस्पीकर से सुना कि देश रक्षा के लिये चंदा लिया जा रहा है, मैं भी कुछ देना चाहता हूं।” वर्मा जी ने कहा- हां-हां जरूर दो, देश के प्रति सभी का कर्तव्य है। उस व्यक्ति ने अपनी बंद मुट्ठी में से दो रूपये का नोट निकाल कर वर्मा जी के हाथ पर रख दिया।
वर्मा जी ने उस अकिंचन व्यक्ति से पूछा- “क्या करते हो?” उसने कहा- साहब मैं किराये की रिक्शा चलाता हूं। मंच ज्यादा ऊंचा नहीं था। एक छोटा तख्त डाल कर उस पर सफेद चादर बिछा दी गई थी। वर्मा जी ने उस रिक्शा चालक का हाथ पकड़ कर उसे मंच पर चढ़ा लिया और अपने गले में पड़ी गेंदे की माला निकाल कर उसके गले में डाल दी। वर्मा जी ने कहा- यहां देश के लिए अनेक दानी सज्जन मौजूद हैं लेकिन आज का महादान वीर यह रिक्शा चालक है।
ऐसी बहुत सी घटनायें स्मृति पटल पर अंकित है। हमारे ऋषियों ने व्यक्ति को जीवन जीने के अनमोल सूत्र दिये हैं। एक सूत्र है:
सत्यम ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यम अप्रियम।
अर्थात सत्य बोलो, प्रिय बोलो किन्तु अप्रिय- कड़वा सत्य न बोलो। कुछ लोग वीरेंद्र वर्मा जी के कड़वे सत्य को उचित नहीं मानते थे। प्रिय बोलना और सत्य बोलने में ही अच्छाई होती होगी। उनका कड़वा सत्य बोलना अच्छाई थी या बुराई, इसका आकलन मैं नहीं कर सकता। हां मुझे पता है कि कड़वे वचन बोलने वाले तरुण सागर जी महाराज को सुनने को स्त्री-पुरुषों के झुंड के झुंड खिंचे चले आते थे। वर्मा जी के कड़वे वचन सुनने का मुझे भी मौका मिल जाता था। आज उनके वे कड़वे वचन मुझे शहद से भी मीठे प्रतीत होते हैं। जन्मदिन पर मेरा कोटि-कोटि नमन।
गोविंद वर्मा
संपादक देहात