कर्नाटक सरकार में मंत्री और कांग्रेस नेता प्रियांक खरगे ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर निशाना साधते हुए कहा है कि संघ लंबे समय से संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ जैसे शब्दों को हटाने की वकालत करता रहा है। अब भाजपा के भी कई नेता इस मांग को दोहराने लगे हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट पहले ही इन दोनों शब्दों को संविधान की मूल भावना का हिस्सा घोषित कर चुका है।
प्रियांक खरगे ने सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हुए सुझाव दिया कि किसी भी संवैधानिक संशोधन की मांग करने से पहले भाजपा को अपने पार्टी संविधान की प्रस्तावना को देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि भाजपा के संविधान के अनुच्छेद-II में स्पष्ट रूप से ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ के सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्धता जताई गई है। ऐसे में बदलाव की शुरुआत भाजपा को अपने संगठन से करनी चाहिए। खरगे ने भाजपा के पार्टी संविधान का हवाला देते हुए एक फोटो भी साझा किया।
आरएसएस की पारदर्शिता पर कांग्रेस का सवाल
इससे पहले कांग्रेस सांसद मणिकम टैगोर ने आरएसएस के संगठनात्मक ढांचे पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि खुद को दुनिया का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन बताने वाला संघ पारदर्शिता से क्यों बचता है? उन्होंने पूछा कि आरएसएस में जातिगत गणना क्यों नहीं की जाती?
टैगोर ने आरएसएस से तीन सवाल पूछे:
- शीर्ष नेतृत्व में कितने ओबीसी प्रतिनिधित्व में हैं?
- कितने दलित नेता संगठन का हिस्सा हैं?
- आदिवासी समुदाय से कितने लोग शीर्ष स्तर पर हैं?
उन्होंने आरोप लगाया कि संघ के नेतृत्व में 90 प्रतिशत से अधिक पदों पर उच्च जातियों का वर्चस्व है, जबकि एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक वर्गों की भागीदारी लगभग नगण्य है। टैगोर ने सवाल किया कि जब बात समावेश की आती है, तो ‘सबका साथ’ का नारा कहां चला जाता है?
क्या है विवाद की जड़?
आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ पर एक कार्यक्रम में कहा था कि संविधान की मूल प्रस्तावना में ‘सेक्युलरिज्म’ और ‘सोशलिज्म’ शब्द नहीं थे। ये शब्द 1975-77 के आपातकाल के दौरान संशोधन के जरिए जोड़े गए थे। उन्होंने कहा कि प्रस्तावना तो शाश्वत है, लेकिन इन शब्दों का जोड़ा जाना एक राजनीतिक प्रक्रिया थी, जो संविधान निर्माताओं के मूल स्वरूप का हिस्सा नहीं थी।