सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम निर्णय में स्पष्ट किया है कि सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के पद के लिए न्यायिक सेवा परीक्षा में भाग लेने से पहले उम्मीदवारों को कम से कम तीन साल की कानूनी प्रैक्टिस करनी होगी। यानी अब ताज़ा लॉ ग्रेजुएट्स सीधे इस परीक्षा में शामिल नहीं हो पाएंगे। इस आदेश से देशभर के हजारों कानून स्नातकों पर असर पड़ेगा और न्यायिक भर्तियों की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण बदलाव आएगा।
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता में हुई सुनवाई में कोर्ट ने आठ अहम मुद्दों पर विचार किया। इनमें से एक मुद्दा न्यायिक सेवा में आरक्षण को लेकर था, जिसमें 10 प्रतिशत कोटा बढ़ाकर पहले की तरह 25 प्रतिशत करने की सिफारिश की गई। वहीं एक अन्य बिंदु यह था कि परीक्षा के लिए न्यूनतम योग्यता के तौर पर 3 साल की सेवा को अनिवार्य किया जाए।
कोर्ट का मानना: अनुभव जरूरी, केवल डिग्री नहीं पर्याप्त
सीजेआई ने कहा कि बिना अनुभव के सीधे नियुक्त होने वाले नए विधि स्नातकों की वजह से कई तरह की व्यावहारिक समस्याएं सामने आई हैं, जैसा कि विभिन्न हाईकोर्ट्स की रिपोर्ट में भी दर्ज है। न्यायालय का मानना है कि केवल शैक्षणिक ज्ञान के आधार पर जज की भूमिका निभाना संभव नहीं, इसके लिए अदालत की प्रक्रियाओं की समझ और वरिष्ठ वकीलों के साथ कार्यानुभव आवश्यक है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि न्यायाधीशों को नियुक्त होते ही ऐसे मामलों से निपटना होता है, जो जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति जैसे संवेदनशील विषयों से संबंधित होते हैं। इनसे निपटने के लिए किताबों का ज्ञान काफी नहीं है, बल्कि व्यावहारिक अनुभव और मार्गदर्शन जरूरी है।
प्रैक्टिस की गणना नामांकन की तारीख से होगी
फैसले के अनुसार, न्यूनतम तीन साल की वकालत की अवधि की गणना लॉ ग्रेजुएट के बार में नामांकन की तारीख से की जाएगी। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि वकीलों को यह प्रमाणित करना होगा कि उन्होंने तय न्यूनतम अवधि तक प्रैक्टिस की है। यह स्पष्ट किया गया कि अखिल भारतीय बार परीक्षा (AIBE) अलग-अलग समय पर होती है, इसलिए अनुभव की गणना अंतिम पंजीकरण की तारीख से की जाएगी।