हिंदुत्व का प्रखर चेहरा थे कल्याण सिंह !

यह कोई जुमला नहीं, अपितु प्रभाषित सच्चाई है कि कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश में राष्ट्रवाद एवं हिंदुत्व का चेहरा थे। मण्डल और कमण्डल की राजनीति के बीच ओबीसी (पिछड़ी जातियों) को संगठित करने में उनका राजनीतिक कौशल अद्वितीय था। कब और कैसे राजनीति में आए, कब हारे, कब जीते, कब अर्श पर पहुंचे, कब फर्श पर आए, कैसे भाजपा की नैया के खेवन हार बने और कैसे बार-बार भाजपा छोड़ी, कब राष्ट्रीय क्रांति पार्टी का गठन किया, कब धुर विरोधी सपा नेता मुलायम सिंह से हाथ मिलाया और कब निर्दलीय उम्मीदवार बन अपने बल पर सांसद बने ये सभी तारीखें और आंकड़े हमारे पास हैं लेकिन अब उनका उल्लेख बेमानी है।

कल्याण सिंह राजनीतिक दंगल के अखाड़े में सामर्थवान योद्धा थे। कैसे दो-दो बार मुख्यमंत्री बने कैसे नरेश अग्रवाल की कलाबाजियों और रोमेश भंडारी की चालबाजियों से मुख्यमंत्री पद से हटाए गये और कैसे बहुमत सिद्ध किया, ये घटनाक्रम बहुत पुराने नहीं हुए हैं। विशेष बात यह है कि वे अपने मूल स्वभाव और स्थायी सिद्धांतों से कभी जुदा नहीं हुए। अन्य राजनीतिज्ञों की भांति उनकी जीवनशैली कार्यों की प्रशंसा भी हुई और निंदा भी। घनिष्ट सहयोगी गंगा सिंह राजपूत से तकरार भी हुई। कुसुम राय के नाम को भी खूब उछाला गया किंतु कल्याण सिंह का वजूद कम नहीं हुआ।

राम जन्मभूमि के उद्धार के प्रति उनका समर्पणभाव किसी से छिपा न था। उन्होंने बाबरी मस्जिद विध्वंस की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद को त्यागा और जब 1997 में पुनः मुख्यमंत्री बने तब मस्जिद विध्वंस के आरोपितों से मुकदमे वापिस करा दिये। भारत माता को डायन बताने वालों को मुंहतोड़ जवाब देनेको प्रदेश के स्कूलों में भारत माता की जय और वंदे मातरम् बोलना अनिवार्य कर दिया। हमें याद है कि बड़े नेताओं की विचारधाराओं में कितना मूलभूत अंतर होता है। कल्याण सिंह ने नकल विरोधी कानून बनाया और मुलायम सिंह यादव ने वोटों के खातिर उस कानून को रद्द किया।

पता नहीं क्यूं हमारे देश में उन बूढ़ों की उपेक्षा करने का चलन है जो जीवन भर परिवार को पालते-पोसते हैं। उसका खटोला मकान के एक कोने में डाल दिया जाता है। राजनीति में ऐसे महारथी को राज्यपाल बना कर बनवास दे दिया जाता है। इस स्थिति को देख नानाजी देशमुख, मोहन धारिया जैसे लोग स्वतः ही संन्यास ले कर रचनात्मक कार्यों में लग गए थे। कल्याण सिंह को भी यही रास्ता चुनना चाहिये था।

कल्याण सिंह ने अटल जी की कविता ‘रार नहीं ठानूंगा, हार नहीं मानूंगा’ कि आधी पंक्ति पर अमल किया, ‘रार तो ठानी, किंतु कभी हार नहीं मानी।’

कुछ लोग कहते थे कि कल्याण सिंह भाजपा से अलग क्यूं हुए थे। यह सोचना गलत था। भाजपा उनसे अलग हुई होगी। वे भाजपा से कभी अलग नहीं हुए। भाजपा या हिंदुत्व और राष्ट्रवाद तो उनके दिल में बसता था। कल्याण सिंह और हिंदुत्व एक दूसरे में समहित थे उनकी भावना थी:
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज की पंछी, फिरि जहाज पै आवै॥

उनकी अनंत यात्रा प्रस्थान पर हमारा नमन !

गोविंद वर्मा
संपादक देहात

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