दंगाइयों के प्रति उदारता !

असम के नगाँव जिले के मछली व्यापारी और ड्रग तथा हथियारों की तस्करी में गिरफ्तार शफीकुल इस्लाम की पुलिस कस्टडी में मौत हो गई थी। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप मुसलमानों की उग्र भीड़ ने बटाद्रवा का पुलिस थाना फूंक डाला था। पुलिस ने शफीकुल इस्लाम सहित आगजनी करने वाले 6 लोगों के घरों पर बुलडोजर चला दिया था।

गुवाहाटी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश आर. एम. छाया ने मामले पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि आपराधिक कानून के तहत किसी के घर पर बुलडोजर चलाने का प्रावधान नहीं है, भले ही कितने भी गम्भीर मामले की जांच चल रही हो। यहां तक कि घर की तलाशी लेने की भी आवश्यकता होती है। मुख्य न्यायधीश ने यह भी कहा कि ध्वस्त घर से जो 0.9 एम.एम. की पिस्टल मिली, दिखाई गई है, आशंका है – कि पुलिस ने जानबूझ कर रखी हो।

चीफ जस्टिस का कथन कानूनन सही है। किन्तु विचारणीय प्रश्न ये हैं कि जब देश की सीमाओं पर आतंकी घुसपैठ और आतंकी घटनायें हो रही हो, जम्मू-कश्मीर में टारगेट किलिंग जारी हो, पंजाब में फिर से उग्रवाद पनपने की आशंका बलवती हों, नक्सलवादी गतिविधियां चल रही हों। पूर्वोत्तर राज्यों में ड्रग, हथियार व मानवतस्करी धड़ल्ले से हो रही हों और साम्प्रदायिक तत्व अपनी काली करतूतों से देश की अस्मिता एवं अखंडता को चुनौतियां दे रहे हों, तब क्या कानून की लकीर पीटने से काम चलेगा? न्यायपालिका को बदली हुई परिस्थितियों को ध्यान में रखना होगा।

गोविंद वर्मा
संपादक ‘देहात’

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