ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस, तृणमूल, कम्युनिस्ट, एन.सी.पी आदि विपक्षी पार्टियों ने यह मान लिया है कि वे तरह तरह के झूठ और सड़ी-गली अभद्र गालियां देकर देश की उस जनता को गुमराह कर सकते हैं जिसने प्रचण्ड बहुमत से दो-दो बार सत्ता नरेन्द्र मोदी को सौंपी है।
अरविन्द केजरीवाल पिछले कई वर्षों से प्रधानमंत्री को दर्जा 12 पास बेपढ़ा-लिखा मूर्ख आदमी बता-बता कर कह रहे कि बेपढ़ा शख्स देश को चौपट कर रहा है। सच्चाई जानते हुए भी नरेन्द्र मोदी की पढ़ाई की सनद मांगने का ढोंग कर जनता को भरमाने में लगा था किन्तु गुजरात हाईकोर्ट ने 25 हजार रुपये का जुर्माना लगा कर झूठ के गुब्बारे की हवा निकाल दी। अब उनके ढिंढोर्ची खींसे निपोर-निपोर कर न्यायालय को भी गाली देने लगे हैं।
कांग्रेस नेताओं को शायद इलहाम हो गया है कि जितनी बदजुबानी करोगे, गालियां दोगे, जितना बड़ा झूठ बोलोगे उतनी ही गहरी नरेन्द्र मोदी की कब्र खुदेगी। मोदी के हरकदम पर उसे अनपढ़ बताओ, भ्रष्ट बताओ, तानाशाह बताओ। 30 मार्च को प्रधानमंत्री ने नये संसद भवन का निरीक्षण किया। मोदी विरोधी ईको सिस्टम फिर चालू हो गया। जयराम रमेश बोले- नया संसद भवन तानाशाह नरेन्द्र मोदी के घमंड की इमारत है। हर तानाशाह विरासत में इमारत की यादगार छोड़ जाता है; मोदी ने यही किया है। जिस इमारत की कोई जरूरत नहीं थी, उस के निर्माण पर अपने घमंड के कारण जनता के हजारों करोड़ रुपये फूंक डाले।
वे यह भूल गए कि ग्रामीण विकास मंत्री रहते उन्होंने पुरानी संसद की जगह नई संसद की बिल्डिंग बनाने की बात कही थी। 13 जुलाई 2012 को तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने नये संसद भवन का निर्माण कराने को शहरी विकास मंत्रालय को पत्र लिखा था। मनमोहन सिंह मंत्रिमंडलन ने नये संसद भवन के निर्माण पर विचार किया था। तब नये संसद भवन की निर्माण लागत 3000 करोड़ रुपये आंकी गई थी। पुराने संसद भवन का निर्माण 12 फरवरी, 1921 को आरंभ हुआ जिसका शिलान्यास ड्यूक ऑफ़ कनाट ने किया और उद्घाटन 18 जनवरी 1927 को लॉर्ड इर्विन ने किया। इंजीनयरों ने संसद भवन की आयु 60 वर्ष आंकी थी। वास्तुकारों की रिपोर्ट के अनुसार तीन दशक पूर्व ही नया संसद भवन बन जाना चाहिये था। सेंट्रल विस्टा की परिकल्पना आते ही कांग्रेस ‘विरासत की इमारतों’ पर हाय तोबा मचाने लगी थी। उसे अंगरेजों की घुड़सालों में सरकारी कार्यालयों को चलाते रहना मंजूर था, नव निर्माण नहीं। वंशवादी सोच से कांग्रेस उबर नहीं सकती।
गोविंद वर्मा
संपादक ‘देहात’