राजनीति के अपराधीकरण का दुष्परिणाम !

लोकतांत्रिक पद्धति पर प्रहार करते हुए एक विचारक ने कहा था- ‘यह ऐसी प्रणाली है जिसमें एक ओर 9 इंसान हों और दूसरी ओर 10 गधहे हों तो गधहों का पक्ष जीत जाएगा।’ बदले वातावरण में कहा जाए कि एक पक्ष में भले लोग हों और दूसरी ओर शरकश टाइप के बाहुबली गुंडे हों तो वे जीत जाएंगे। मैं इस घटिया विचार से एक प्रतिशत भी सहमत नहीं हूं। अनेक खामियों के बावजूद लोकतंत्र एक आदर्शवादी व्यवस्था है जिसे कायम रखने के लिए हम सभी को संघर्ष और बलिदान के लिए सदा तत्पर रहना पड़ेगा।

देश के करोड़ों दर्शकों ने राज्यसभा में खुली गुंडागर्दी और मुठमर्दी के दृश्य देखे। राज्यसभा के उपसभापति तथा मार्शलों के साथ गली के टुच्चे शोहदों के समान आचरण किया गया। इतनी बतमीजी के बाद भी शरद पवार और गुलाम नबी आजाद जैसे वरिष्ठ लोग ही इस घृणित लोकतंत्र विरोधी आचरण का समर्थन कर रहे हैं जबकि देश के करोड़ों लोग इस गंदी हरकत पर थू-थू कर रहे हैं।

वस्तुत: देश के 135 करोड़ लोगों द्वारा ठुकराए जाने के बाद दशकों तक सत्ता सुख भोगने वालों में घोर निराशा, कुंठा, अहंकारजन्य प्रतिशोध की ज्वाला धधक रही है। वे तर्क एवं विवेक तो बालाए ताक रखकर निर्लज्ज तानाशाही पर उतरे हुए हैं। प्रतिशोध की आग खुद उनके ही आशियानों को फूंकती जा रही है। नये दिन की शुरुआत वे किसी सद विचार से नहीं अपितु गाली पुराण बाचने से करते हैं।

परन्तु इस सब का अर्थ यह नहीं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में खोट है। खोट तो राजनीति की दुकान चलाने वाले पेशेवर नेताओं के दिमागों में है जिन्होंने उच्च सदन में भी थैलियों की भंझनाहट के बल पर जातिवादियों, तास्सुबी जहनियत के लोगों को राज्यसभा में भेजने की परम्परा कायम की। 1952 में जब राज्यसभा का गठन हुआ तो वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, कवियों तथा कलाक्षेत्र की हस्तियों को प्रतिनिधित्व दिया गया। मैथिली शरण गुप्त, पृथ्वीराज कपूर, जाकिर हुसैन, सत्येन्द्र नाथ बोस आदि को राज्यसभा में मनोनीत किया गया। हरिवंश राय बच्चन, नरगिस आदि श्रेष्ठ कलाकार संसद के सदस्य बने। बालकृष्ण शर्मा नवीन तो संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य थे। श्री नवीन तो व्यवस्था पर चोट करने से कभी नहीं चूकते थे। ‘कवि कोई ऐसा गान सुनाओ जिससे उथल पुथल मच जाए।’ उनकी कालजयी रचना थी।

ज्यों-ज्यों राजनीति का अपराधीकरण हुआ और ‘लो उखाड़ दिया’ वाली मनोवृत्ति के बाहुबली नेता का बाना पहनकर उच्च सदन में पहुंचने लगे, उच्च सदन की गरिमा भी हवस्त होने लगी। हमारा विचार है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुष्ट करते हुए ही इन दुराग्रही तत्वों का फन कुचला जाना चाहिए।

“जिन चरागों से ताअससुब का धुआँ उठता हो,
उन चरागों को बुझा दो, उजाले होंगे।”

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’

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