राकेश पंडिता की हत्या ने 1990 के नरसंहार को याद दिलाया !

तीन जून को कश्मीर के त्राल शहर में भारतीय जनता पार्टी के नेता तथा नगर पालिका के अध्यक्ष राकेश पंडिता की गोली मारकर हत्या कर दी गई। राकेश पंडिता रात्रि को अपने मित्र मुश्ताक अहमद से मिलने उनके घर गए थे। वे अपने साथ दोनों अंगरक्षक नहीं ले गए थे। हमलावरों को संभवत: उनके मुश्ताक अहमद के निवास पर जाने का समय पता था और शायद यह भी पता था कि उनके साथ अंगरक्षक नहीं है।

उल्लेखनीय है कि जम्मू कश्मीर में धारा 370 के खात्मे के साथ ही घाटी में उन कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास की आशा जगी थी जिनकी जमीन-जायदाद पर 1990 के नरसंहार के बाद जबरन कब्ज़े कर लिए गए थे। योजनाबद्ध तरीके से एक साथ मस्जिदों के लाउडस्पीकर से हिंदू मर्दों को घाटी से भाग जाने और अपनी औरतों को छोड़ जाने के ऐलान हुए तथा भारी मारकाट के बाद लगभग चार लाख कश्मीरी पंडित अपने मकान, दुकान व बागान छोड़ने को विवश हुए। हजारों कश्मीरी पंडित राजधानी दिल्ली के त्रिलोकपुरी क्षेत्र में आज भी दयनीय स्थिति में जीवन काट रहे हैं।

धारा 370 का विरोध करने वाली पार्टियां व नेता तथा अरबों रुपये की संपत्ति कब्जाये बैठे लोग यह नहीं चाहते कि कश्मीरी पंडितों को फिर से उनकी जायदाद वापिस मिले। 1990 के नरसंहार का किसी भी कांग्रेस नेता या सेक्यूलरवादी दल ने विरोध नहीं किया। यही नहीं रोशनी एक्ट की आड़ लेकर जम्मू में वहां के बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यक बनाने की कोशिश की गई जिसका कांग्रेस ने विरोध नहीं किया।

राज्यपाल मनोज सिन्हा ने गत वर्ष दिसंबर में घोषणा की थी कि सरकार विस्थापित कश्मीरी पंडितों को फिर से कश्मीर में बसाने की योजना तैयार कर रही है। नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी तथा कांग्रेस व वामपंथी दल नहीं चाहते कि पंडितों को उनकी संपत्ति फिर से वापिस मिले। एक प्रकार से ये 1990 के नरसंहार, बलात्कारों व जायदादों पर नाजायज कब्जों को सही ठहरा रहे हैं। धारा 370 की समाप्ति के बाद से 10 से अधिक प्रभावशाली पंडितों की हत्या की जा चुकी है। ये इन हत्याओं से संदेश देना चाहते हैं कि यदि इन्हें घाटी में पुनः बसाया गया तो उनका 1990 जैसा अंजाम होगा। जो लोग लोकतंत्र और भारत की अखंडता में विश्वास रखते हैं उन्हें राकेश पंडिता की हत्या का शांतिपूर्ण व संवैधानिक तरीके से प्रबल विरोध करना चाहिए।

गोविंद वर्मा
संपादक देहात

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