शीर्ष अदालत की छवि का सवाल !

जो सत्ता में हैं उन्हें बहुत संतुलित एवं संयमित भाषा बोलनी चाहिए क्योंकि जुबान से निकले शब्द वे तीर हैं जो कमान से छोड़े जाने के बाद वापिस नहीं आते। इसी प्रकार न्याय के सर्वोच्च सिंहासन पर बैठे न्यायधीशों की जिम्मेदारी तो सत्ताओं, नेताओं, कार्यपालिका तथा विधायिका से भी कहीं बड़ी है। न्यायपालिका को ही इन सब के विवादों, गलतियों का शमन करना होता है। ऐसी कोई उत्तेजनात्मक टिप्पणी, फटकार या विचार अदालत से बाहर नहीं आने चाहियें जिससे न्यायिक प्रक्रिया, उसका सम्मान एवं देश का सम्पूर्ण माहौल दूषित हो। खेद है कि शीर्ष अदालत से सुरक्षा की गुहार लगाने पहुंची नूपुर शर्मा के विषय में जो टिप्पणियां की गईं उससे देश में खलबली मच गई है।

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पर न्यायविदों, बुद्धिजीवियों तथा लोकतंत्र और स्वतंत्र-निष्पक्ष न्यायपालिका के पक्षधरों में गहरा असंतोष या आक्रोश व्याप्त है। दिल्ली हाई कोर्ट के सेवानिवृत जज जस्टिस एस. एन. ढींगरा ने कहा है कि जजों ने अधिकार क्षेत्र और न्यायिक प्रक्रिया की अवहेलना कर गैर क़ानूनी, गैर जिम्मेदाराना तथा गैर मुसातिब टिप्पणी कर अपने घमंड-अहंकार का परिचय दिया है। जस्टिस ढींगरा ने कहा है कि दोनों जजों ने सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा को कलंकित किया है। सबसे बड़ा अपराध यह किया गया कि ऐसा माहौल व दबाव बना दिया कि नूपुर शर्मा को किसी अधीनस्थ अदालत से न्याय न मिले क्योंकि निचली अदालतों को यह कहने और मानने का बहाना है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने नूपुर शर्मा को देश में आग लगाने व कन्हैया लाल की हत्या का दोषी बता दिया तो हम क्या राहत दें?

इसी प्रकार वरिष्ठ अधिवक्ता विजय सरदाना ने शीर्ष अदालत के जजों की टिप्पणी को अनाधिकार चेष्टा व दुर्भाग्यपूर्ण बता कर उसे क़ानूनी प्रक्रिया के विपरीत बताया है।

हमारा कहना है कि हर बुरी चीज़ में कुछ अच्छाई भी होती है। अभी तक साधारणतया लोग अदालतों के फैसले पर सीधी टिप्पणियां करने से बचते थे किन्तु अब कहा जाने लगा है कि अवमानना की कार्यवाही व स्वतः संज्ञान का अधिकार जजों को अहंकारी व तानाशाह बनाता है। यदि जज पूर्वाग्रह या राजनीतिक सोच से ग्रसित होकर चलेंगे तो उनकी आलोचनाओं की श्रृंखला आरंभ हो जाएगी। इसके अच्छे नतीजे ही निकलेंगे। लोग यह तो साफ-साफ कहने लगे हैं कि जज खुदा या खुदाई खिदमतगार नहीं बल्कि इंसान ही हैं और इंसान से गलतियां होती हैं।

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’

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