अपराधी और न्याय की छतरी !

आधुनिक न्याय प्रणाली के कुछ अद्भुत सिद्धांत हैं। कहा गया हैं कि कानून का पहला उदेश्य यह हैं कि चाहे किसी वाद में अपराधी छूट जाये किन्तु किसी निर्दोष को सजा न मिले। यह भी कहा गया हैं कि न्याय कि आँखों पर पट्टी बंधी होती हैं। एक प्रचलित मान्यता हैं कि न सिर्फ न्याय किया जाये अपितु वादकारी को महसूस होना चाहिये की न्याय हुआ हैं। यह कथन बार-बार दोहराया जाता हैं कि न्याय करने में विलम्ब न्याय न करने के समान हैं।

हमारी प्रचलित न्याय व्यवस्था से न्यायपालिका के शीर्ष पर बैठे लोग भी संतुष्ट नहीं। ऐसे अनेक अवसर आये जब सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायधीश या न्यायमूर्तियों ने न्याय प्रणाली की खामियां गिनाई किन्तु यह काम वे अपने रिटारयमेंट के विदाई भाषण में करते हैं। न्यायपालिका को दबाव में रखने या उसे पथभृष्ट करने के आरोप भी स्वयं जजों ने सेवा निवृति के मौके पर लगाए।

देश की प्रशासनिक व्यवस्था, नौकरशाही, विधायिका के अंगो तथा सुशासन एवं लोक कल्याण के मुद्दों पर चर्चा या आलोचना जाग्रत लोकतंत्र की निशानी हैं किन्तु न्यायपालिका की स्थिति पर लोग बोलने से हिचकिचाते हैं क्योंकि उनके सिर पर न्यायालय की अवमानता की तलवार लटकी रहती हैं। यह विशेषाधिकारी केवल सेवा निवृत न्यायधीश को प्राप्त हैं।

विचारधीन मामलों पर न्यायपालिका का आदर करने वाला कोई विवेकशील नागरिक टिप्पणी नहीं करता। करनी भी नहीं चाहिये किन्तु, अपनी राजनीति चमकाने के चक्कर में कुछ विशेष नेतागण आये दिनों कैमरों पर आकर अदालत के फैसले पर अनाधिकार टिप्पणी करते हैं। मामूली बातों पर स्वतः संज्ञान लेने वाली अदालत इन टिप्पणियों को नज़र अंदाज़ कर देती हैं। यह अदालतों का अपना विवेक हैं कि एक से मामलों पर अलग-अलग फैसले दें या अपने ही फैसले को मनमर्जी से उलट दें, जैसाकि कांग्रेस नेता और पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्दू के मामले में हुआ, यद्यपि ऐसे फैसले कानून के दायरें में ही लिए जाते हैं।

वादकारियों कि सबसे बड़ी मांग शीघ्र व सस्ते न्याय की उपलब्धि की हैं। सेवा निवृति लेने वाले माननीय न्यायधीशगण एक नहीं अनेक बार इसका जिक्र कर चुके हैं। अधीनस्थ न्यायलयो एवं अदालतों में लंबित वादों के अम्बार से सभी वाकिफ हैं। स्वतंत्रता के अमृतकाल में तो इस दीर्घ-कालीन समस्या का हल निकलना ही चाहिये।

एक अनकही समस्या यह भी हैं कि न्याय व्यवस्था और कानून के दांव-पेंच से जो अपराधी बचने के लिए कानून की छतरी ओढ़ लेते हैं, इससे कैसे निजात मिले, यह कानूनविदों, संविधान के संरक्षकों तथा जनप्रतिधियों को अवश्य सोचना चाहिये।

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’

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