प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लालकिले की प्राचीर से घोषणा की थी कि हमें गुलामी के प्रतीक चिन्हों, गुलामी के निशानों को मिटाना है किन्तु गुलामी की मानसिकता को तन-मन में पालने वाले लोग गुलामी की प्रवृत्ति को त्यागने को तैयार नहीं। वे ज़रखरीद गुलामों की भांति उन लोगों के विरुद्ध ज़हर उगलने से बाज नहीं आते जो विदेशी हमलावरों द्वारा स्थापित गुलामी के प्रतीक चिन्हों, पराधीनता की कालिमा को मिटा कर स्वतंत्र भारत में विकास और राष्ट्रीय सम्मान का नया सूरज उगाना चाहते हैं। फिर चाहे वे नरेन्द्र मोदी हों या फिर डॉ. संजीव बालियान !
गुलामी मानसिकता को निरन्तर पुष्ट करने और राष्ट्रवादियों तथा विकास की ज्योति जगाने वालों को नरेन्द्र मोदी से चिढ़ हो सकती है क्योंकि वे देश का नया इतिहास रच रहे हैं लेकिन उनका नजला तो संजीव बालियान जैसे एक सामान्य भाजपा कार्यकर्ता पर भी गिरता है। ताज्जुब है ये मुगलों व अंग्रेजों के वरदपुत्र खुद को बुद्धिजीवी भी कहते हैं। ऐसे ही एक महाशय ने डॉ. बालियान के चुनाव में पराजित होने के बाद अपना निन्दा अभियान चला रखा है क्योंकि वे एक अखबार मालिक के यहां नौकरी करते हैं और वह अखबार नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध आग उगलने में लगा रहता है।
डॉ. बालियान पर गोलमोल शब्दों में आरोप मढ़ा गया कि उन्होंने जाटों की उपेक्षा की, जाटों को दलितों की श्रेणी में लाने के लिए जाटों का आरक्षण नहीं कराया और पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य या जाट लैंड बनाने की कोशिश नहीं की, न ही मुजफ्फरनगर या मेरठ में इलाहाबाद हाईकोर्ट की बैंच स्थापित कराई।
मुजफ्फरनगर में वीरेन्द्र वर्मा, बाबू नारायण सिंह, विद्याभूषण, बाबू हुकुम सिंह जैसे कद्दावर जनप्रतिनिधि हुए हैं जिन्होंने जनहित में अनेक उल्लेखनीय काम किए हैं। उनके विकास कार्य एवं जनसेवाओं को सदा याद किया जाएगा किन्तु डॉ. संजीव बालियान ने 10 वर्षों के अपने मंत्रित्वकाल में बेमिसाल विकास कार्य किए हैं जो जीवित रूप में अपना खुद बखान करते हैं। नंगला-मंदौड़ की महापंचायत के बाद किस तरह से जौली की गंग नहर में बाइक सवारों व ट्रैक्टरों को डाला गया, सैकड़ों निर्दोष युवकों का जीवन बर्बाद करने के लिए अखिलेश सरकार ने झूठे चालान कराये, डॉ. बालियान ने गांव-गांव जाकर खुद बयान हल्फी तैयार कराये और फर्जी मुकदमों को खत्म कराया। कांग्रेस के दरबारी इसे झुठलाने की कोशिश में हैं।
लोकतंत्र में जीत-हार होती रहती है। हारे तो चौधरी चरणसिंह, इंदिरा गांधी, सीबी गुप्ता तथा वीरेन्द्र वर्मा और बाबू नारायण सिंह भी थे। जीत-हार सदा मैरिट पर हो, ऐसा भी नहीं है। यह विश्लेषण तो राजनीतिक दल के लोग करें। हमारा कहना है कि जनता से जुड़े रहने वाला नेता, चाहे वह कोई भी हो, हारता कभी नहीं है। डॉ. बालियान की हार पर जश्न मनाने वाले यह वास्तविकता समझ लें तो मानसिक गुलामी में भी उन्हें कुछ मानसिक शान्ति मिल सकती है।
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’