जो आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कैद करने का सियापा कर रहे हैं, वे याद करें;
1) आपातकाल में 327 पत्रकारों की गिरफ्तारी हुई।
2) 3801 अखबारों के घोषणापत्र (डिक्लेरेशन) रद्द किये गए।
3) 290 अखबारों के सरकारी (डीएवीपी) विज्ञापन बंद कर दिए गए।
4) अखबारों, समाचार एजेंसियों के टेलेक्स, फोन, बिजली कनेक्शन काटे गए।
5) देश भर के छोटे-बड़े अखबारों पर सेंसर लगा दिया गया।
6) किशोर कुमार जैसे कलाकारों के गीत आल इंडिया रेडियो से प्रसारित होना बंद कर दिये गए।
7) भवानी प्रसाद मिश्र और नागार्जुन जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों की वाणी पर अंकुश की नाकाम कोशिश की गई।
तब भवानी दादा ने लिखा था:
बहुत नहीं सिर्फ चार कौवे थे काले
उन्होंने तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खाएं और गायें
वे जिनको त्यौहार कहें सब उसे मनायें
कभी-कभी जादू हो जाता दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते औगुनिया में
ये औगुनिया चार बड़े सरताज हो गए
इनके नौकर चील, गिद्ध और बाज हो गए।
जिनके माथे पर ही नहीं, पूरे मुँह पर यह कलंक की स्याही पुती है, वे भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का राग अलाप कर तानाशाही की पुनर्स्थापना की कोशिश में जुटे हैं।
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’