बागपत से चमरावल मार्ग पर करीब 14 किलोमीटर की दूरी पर ‘सैनिकों का गांव ढिकौली’ का बोर्ड नजर आता है, जो इस गांव की गौरवशाली पहचान को दर्शाता है। यह नाम यूं ही नहीं पड़ा—इस गांव के करीब एक हजार युवा सेना और अर्धसैनिक बलों में सेवाएं दे रहे हैं। सीमा पर तैनात सैनिकों की संख्या के लिहाज से यह गांव सबसे आगे है। यहां के कई युवा मेजर, कर्नल, लेफ्टिनेंट और ब्रिगेडियर जैसे उच्च पदों पर कार्यरत हैं।
करीब 20 हजार की आबादी वाले इस जाट बहुल गांव में देशभक्ति की भावना बचपन से ही नजर आती है। ज्यादातर परिवारों में कोई न कोई सदस्य देश की सेवा में लगा है, जिससे अगली पीढ़ी को भी प्रेरणा मिलती है। यही कारण है कि यहां सेना में भर्ती होना एक परंपरा बन चुकी है।
परिजनों का कहना है कि उनके बेटे देश की रक्षा करते हुए आतंकवादियों को मुंहतोड़ जवाब देने में कभी पीछे नहीं रहते। गांव के वीर जवान सीमाओं पर तैनात होकर देश की सुरक्षा में अपना योगदान दे रहे हैं।
गांव के कई अधिकारी जैसे कमांडर सुनील ढाका, कर्नल अनिल ढाका, पुष्पेंद्र ढाका, मेजर कुलदीप, लेफ्टिनेंट महिपाल ढाका और अन्य, विभिन्न पदों पर रहते हुए राष्ट्रसेवा कर रहे हैं।
ढिकौली ने कई वीर सपूतों को खोया भी है। हवलदार हरपाल ढाका और सौराज सिंह ढाका 1965 की लड़ाई में शहीद हुए, जबकि धर्मपाल सिंह 1984 में अमृतसर में आतंकवाद विरोधी अभियान में वीरगति को प्राप्त हुए। कारगिल युद्ध (1999) में सुरेंद्र ढाका ने प्राणों की आहुति दी।
यह गांव लगभग हर युद्ध में शामिल रहा है। मेजर जनरल सुरेंद्र सिंह ढाका, ब्रिगेडियर रणबीर सिंह और ब्रिगेडियर महेंद्र सिंह ने 1965, 1971 और 1999 के युद्धों में भाग लिया। कैप्टन राज सिंह ढाका को 1965 में मृत समझकर मोर्चरी भेज दिया गया था, लेकिन दो दिन बाद वे होश में आ गए। यह किस्सा आज भी गांव में प्रेरणा का स्रोत है।
कैप्टन राज सिंह की बहादुरी की एक और मिसाल यह है कि 1971 की लड़ाई में वे लाहौर छावनी से पाकिस्तानी सेना की बैरक का संदूक स्मृति के रूप में लेकर आए थे, जो आज भी उनके घर में सुरक्षित रखा है।
गांव के सेवानिवृत्त सैनिक प्रकाश वाल्मिकी कहते हैं, “मैंने 1965 और 1971 की लड़ाइयाँ लड़ी हैं। दोनों बार दुश्मन को उसके घर में घुसकर हराया था। आज भी हमारे गांव के जवान यही परंपरा निभा रहे हैं।”
स्थानीय निवासी रामबीर सिंह बताते हैं, “गांव के अधिकांश युवा सेना में जाने की तैयारी करते हैं। यहां के माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़-लिखकर देश की सेवा करें।”
सेवानिवृत्त सैनिक इंद्रपाल ढाका भी बताते हैं, “हमने भी 1965 और 1971 की लड़ाइयों में हिस्सा लिया और दुश्मन को करारा जवाब दिया। आज भी हमारे बेटे वही परंपरा निभा रहे हैं।”