समाचार है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस एसडी सिंह तथा जस्टिस संदीप जैन की पीठ ने संजय सिंह नामक नागरिक की जनहित याचिका के सन्दर्भ में केन्द्र व राज्य सरकारों, राष्ट्रीय औषधि आयोग एवं ड्रग कंट्रोलर ऑफ इंडिया से जेनेरिक औषधियों की उपलब्धता, उनके मूल्य तथा जेनेरिक औषधी के रैपर, शीशी, पैकिंग आदि पर भारत सरकार का प्रतीक चिह्न देने पर नोटिस जारी किया है।
नोटिस का जवाब क्या आएगा, अदालत का आदेश क्या होगा, इस संदर्भ में यह लेख नहीं है। जब एनडीए सरकार ने, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह महसूस किया कि सामान्यजनों को सस्ती दवायें उपलब्ध होनी चाहिएं तब जेनेरिक दवाओं को प्रस्तुत किया गया। देश में 9,500 प्रधानमंत्री जन औषधि केन्द्र स्थापित किये गए। 60 कैटेगरीज की 60,000 किस्म की दवाइयां उन औषधि केन्द्रों के लिए बनाई जाती है, फिर भी ब्रांडेड औषधि के मुकाबले जेनेरिक औषधियों का उत्पादन हिस्सा मात्र डेढ़ प्रतिशत ही है। यानी ब्रांडेड फार्मा कंपनियों का ही बाजार में बोलबाला है।
फार्मा कंपनियां दवा के नाम पेटेंट करा कर ऊंची कीमत पर उन्हें बेचती हैं, जबकि जेनेरिक दवा 40 से 90 प्रतिशत तक कम मूल्य पर उपलब्ध हैं। क्रोसिन व डोलो का शुद्ध साल्ट पेरासिटामोल है किन्तु पेटेंट नाम होने से साल्ट कई गुणा ऊंची कीमत पर बिकता है। पिछले दिनों आरोप लगा था कि डोलो बेचने वाली कंपनी ने चिकित्सकों को करोड़ों रूपये की रकम इस लिए दी कि वे डोलो को प्रमोट करें।
भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने चिकित्सकों को जेनेरिक औषधियां मरीज के पर्चे पर लिखने की सलाह दी तो इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने आसमान सिर पर उठा लिया। पूरे देश में जेनेरिक औषधियों के विरुद्ध अंदरखाने अभियान चलाया गया। मरीजों और उनके तीमारदारों को यह बताया गया कि जेनेरिक दवायें बकवास हैं, 30 प्रतिशत भी असरदार नहीं। खास कर कैंसर व हार्ट रोग की जेनेरिक दवाइयां तो बिल्कुल बेअसर है।
डॉक्टरों ने स्वास्थ्य मंत्रालय की सलाह को रद्दी की टोकरी में डाल दिया है। आश्चर्य है कि सरकारी अस्पताल के डॉक्टर्स भी पर्ची पर ब्रांडेड दवाइयों के नाम लिखते हैं जबकि जेनेरिक औषधि को प्रिस्क्राइब करने के आदेश हैं। जो सरकारी डॉक्टर प्राइवेट प्रैक्टिस करते हैं, जिन्होंने अपने निजी क्लीनिक पर मेडिकल स्टोर खोल रखा है या खुलवा रखा है, वहां जेनेरिक औषधि नहीं, ब्रांडेड दवायें ही मिलती है। अधिकांश जन औषधि केन्द्रों पर दवाओं की उपलब्धता नहीं होती। मुजफ्फरनगर जिला अस्पताल परिसर में प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र पर जाइये। सेल्समेन वीडियो गेम खेलते मिलेंगे या मोबाइल फोन पर गाना सुनते। पर्चे पर एक नजर मारेंगे और हाथ से इशारा कर देंगे कि दवा नहीं है। 80 प्रतिशत ऐसा ही होता है। जिला अस्पताल के सामने एक मेडिकल स्टोर पर भी जन औषधि केन्द्र का बोर्ड लटका है। वहां भी जेनेरिक दवाइयां कम ही उपलब्ध हैं। पुरानी घास मंडी स्थित जन औषधि केन्द्र पर अलबत्ता ज्यादा ग्राहक आते हैं किन्तु वहां भी सभी जेनेरिक औषधियां उपलब्ध नहीं है।
प्रश्न है कि जब 60,000 किस्म की जेनेरिक औषधियां बनती है तो वे जन औषधि केन्द्र पर मिलती क्यों नहीं। अधिकांश निजी चिकित्सक तो कमीशन खोरी के चक्कर में हो सकते हैं किन्तु सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों को तो जेनेरिक दवाइयां लिखनी चाहिये। ये औषधियां अस्पताल परिसर के जन औषधि केन्द्र पर तो मिलनी ही चाहिये। साथ ही केन्द्र व राज्यों के स्वास्थ्य विभागों को जेनेरिक दवाइयों के विषय में फैलाये भ्रम को दूर कराने के लिए आम लोगों के बीच जाना चाहिए।
गोविंद वर्मा
संपादक ‘देहात’