मतदान का रुझान कम क्यों ?

19 अप्रैल, 2024 को लोकसभा के प्रथम चरण का मतदान संपन्न हुआ। 102 सीटों के लिए हुए मतदान का औसत 64.19 प्रतिशत रहा। वर्ष 2019 में मतदान का राष्ट्रीय औसत 67.11 प्रतिशत था। संभव है कि शेष 6 चक्रों के मतदान का राष्ट्रीय औसत ‌बढ़ जाए किन्तु इसमें सन्देह नहीं है कि नेताओं के लोकतंत्र-लोकतंत्र चिल्लाने या लोकतंत्र खतरे में का ढोल पीटने के बावजूद मतदान का रुझान कम होता जा रहा है जिसे उचित नही माना जा सकता।

2024 के पहले दौर के चुनाव में उत्तर प्रदेश की 8 सीटों पर शुक्रवार को मतदान हुआ। इस चक्र में लोगों की मतदान के प्रति दिलचस्पी कम हुई। वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में बिजनौर का मतदान 66.22 प्रतिशत, 2024 में 58.21, कैराना में 2019 में 67 प्रतिशत और अब 61.17, मुरादाबाद में इस बार 60.60 और 2019 में 66.46, नगीना में 2024 में 59.64 प्रतिशत और 2019 में 63.66, पीलीभीत में इस बार 63.70 तथा 2019 में 64.41 प्रतिशत, रामपुर 2024 में 54.77 तथा 2019 में 63.19, और सहारनपुर में कल 68.94 मतदान, 2019 में 70.87 और मुजफ्फरनगर में 60.2 प्रतिशत मतदान हुआ जबकि 2019 में 68.42 मतदान हुआ था।

इस प्रकार मतदान के प्रति वोटरों की सोच लगातार कम होती जा रही है। इसके कई कारण हो सकते हैं। राष्ट्रीय मुद्दों पर सत्ता रूढ़ भाजपा व उसके सह‌योगी घटक दलों के कार्यकर्ता 400 सीट लाने के नारे से भ्रमित व शिथिल हो गए लगते हैं। विशेषतः शहरी कार्यकर्ता व चुनाव संचालक आश्चर्यजनक रूप से शिथिल हुए। भाजपा-रालोद कार्यकर्ता अपने दलों के स्टार प्रचारकों के आगमन पर चेहरा दिखाने को घरों से निकले। मतदाताओं तक कार्यकर्ता संपर्क शून्य तो नहीं, शिथिल जरूर रहे।

उदाहरण के लिए मुजफ्फरनगर के गाजावाली मौहल्ला क्षेत्र का मतदान केन्द्र दशकों से जिला अस्पताल के गैराजों में बनता था। इस बार गाजावाली के कई हजार मतदाताओं के मतदान केन्द्र जिला अस्पताल से हटा कर मुस्लिम बहुल मोहल्ला लद्धावाला में लगा दिये गए। भाजपा का कोई कार्यकर्ता मतदाता को बताने नहीं फटका कि मतदान स्थल बदल गया है। 10,000-15000 भाजपा समर्थित मतदाता या तो घर बैठे रहे, या शाम तक भटकते रहे। ऐसा पहली बार हुआ।

यह तो एक स्थानीय कुप्रबंध का नमूना है किन्तु पश्चिमी बंगाल को छोड़कर प्रथम दौर में 21 में से 20 राज्यों के मतदाता वोट डालने के प्रति उदासीन रहे। यह लोकतंत्र के प्रति एक संकट का प्रतीक है। मतदाताओं की उदासीनता के कारण एक बार जम्मू-कश्मीर में महज़ 50-60 मतों के मतदान से फारूक अब्दुल्ला आसानी से मुख्यमंत्री बन बैठे थे। जब उत्तराखंड ने मतदाताओं ने विधानसभा चुनाव का बहिष्कार किया तो मात्र 100-150 वोट बूथों पर पड़े और कांग्रेस के नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बन गए।

लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दे उठने चाहियें जिनका राष्ट्रहित पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। स्थानीय मुद्दे गौण होते हैं किन्तु अभी मुजफ्फरनगर के मोरना क्षेत्र के ग्राम टंढेडा के ग्रामीणों ने खस्ताहाल टूटी सड़क को चुनावी मुद्दा बताया और धरना प्रदर्शन शुरू कर दिया। चुनाव बहिष्कार की खबर को मीडिया ने भी खूब हवा दी। इसका परिणाम यह निकला कि 19 अप्रैल के मतदान में 5427 मतदाताओं में से मात्र 71 ग्रामीणों ने मतदान किया। खेद है कि कोई भी उम्मीदवार ग्राम टंढेडा के निवासियों को संतुष्ट करने उनके पास नहीं पहुंचा।

चुनाव में गुंडों, माफियाओं, अराजकतत्वों के मैदान में आने, जाति-बिरादरी व मजहबी जुनून पैदा करने से भी मतदान पर प्रभाव पड़ता है। जातीय व परिवारवादी लोग सत्ता पर पकड़ बनाने के लिए राष्ट्रहित को धता बता कर मतदाताओं को उलझाने में जुट जाते हैं। शांतिप्रिय व संवेदनशील मतदाता का चुनाव की प्रक्रिया से मोह भंग होता जा रहा है। इस सबका दूरगामी कुपरिणाम पड़ना लाज़मी है। कुछ लोग इसीलिए अनिवार्य मतदान प्रणाली लागू करने की वकालत करते हैं। जिस लोकतंत्र का ढोल पीटा जाता है, वह ऐसे तो स्थापित एवं स्थिर होने से रहा। इसके लिए मतदाताओं में शतप्रतिशत मतदान की जागरूकता चाहिए।

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’

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