भारतीय गणराज्य के सातवें राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह देश के सर्वोच्च पद पर आसीन रहते हुए सादगी और सरलता के प्रतीक थे, ठीक वैसे ही जैसे हमारे प्रथम राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्र प्रसाद थे। फर्क इतना था कि राजेन्द्र बाबू ने स्नातकोत्तर विद्यालय से शिक्षा प्राप्त की थी और ज्ञानी जी ने मात्र गुरुद्वारे से धार्मिक शिक्षा ग्रहण की। उनका जन्म 5 मई, 1916 को फरीदकोट जिले के संधवां ग्राम में तरखान (बढ़ई) जाति के एक साधारण दस्तकार किसन सिंह के घर हुआ था। सिख धर्म की शिक्षा प्राप्त कर वे गुरुद्वारों और सिख संगतों में धर्म के प्रचार में लग गए। उन दिनों पूरे देश में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध गहमा-गहमी थी। ज्ञानी जी ने प्रजामंडल नाम से राजनीतिक संगठन बनाया जिसका बाद में कांग्रेस में विलय हो गया। जंगे-आज़ादी में भाग लेने पर उन्हें जेल यात्रा भी करनी पड़ी। देश की आज़ादी के बाद वे सन् 1951 में पंजाब व पेप्सू के राजस्व मंत्री बने। 1972 से 1977 तक पंजाब के मुख्यमंत्री रहे। 25 जुलाई 1982 से 25 जुलाई 1987 तक राष्ट्रपति रहे।
आपरेशन ब्लूस्टार के बाद इन्दिरा गांधी से उनका मनमुटाव हो गया था। रिटायरमेंट के बाद ज्ञानी जी अपना अधिकांश समय धार्मिक कामों में लगाने लगे। श्रीकेशगढ़ साहब जाते समय एक ट्रक ने उनकी कार में टक्कर मार दी जिससे वे बुरी तरह घायल हो गए। 25 दिसम्बर 1994 को उनका निधन हो गया।
ज्ञानी जी से मिलने और उनकी सभाओं की रिपोर्टिंग करने का मुझे सौभाग्य मिला। दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब के एक पत्रकार सम्मेलन में वे गृहमंत्री के रूप में आये थे और बड़ी सरलता से बोले थे। मुजफ्फरनगर में कांग्रेस के चुनाव प्रचार में आये। कांग्रेस का मुकाबला भारतीय क्रान्ति दल से था जिसका चुनावचिह्न खेत जोतता किसान था। गांधी कॉलोनी की चुनावी सभा में जब ज्ञानी जी ने कहा कि भला आज ट्रैक्टर के दौर में कौन हल-बैल चलाता है तो खूब तालियां बजी थीं। शिक्षा ऋषि स्वामी कल्याणदेव जी के प्रति ज्ञानी जी का बड़ा आदरभाव था। स्वामी जी ने उन्हें शुकतीर्थ निमंत्रित किया था। चलते समय उस वक्त बड़ी विचित्र स्थिति उत्पन्न हो गई जब स्वामी जी ने ज्ञानी जी को एक बकरी भेट की और उसे हेलिकोप्टर से अपने साथ दिल्ली लेजाने का आग्रह किया। सिक्यूरटी वाले असमंजस में पड़ गए। ज्ञानी जी सुरक्षा विभाग के अधिकारियों से बोले कि आपको ऐतराज़ है तो स्वामी के उपहार को गाड़ी से दिल्ली ले आओ। ऐसा ही हुआ। बुपाड़ा (मुजफ्फरनगर) के ब्रह्मज्ञानी सत्श्री महेन्द्रपाल जी के प्रति ज्ञानी जी के पूरे परिवार की आस्था थी लेकिन गुरु महाराज ने कहा हुआ था कि आप यानि ज्ञानीजैल सिंह मेरी गद्दी पर नहीं आयेंगे क्योंकि मैं सरकारी तामझाम में नहीं फंसना चाहता । ज्ञानी जी चुपचाप उनसे बिना शोर-शराबे के मिल लेते थे। उनका परिवार गुरु महाराज को एक जोंगा भेंट कर गया था जिसे वे आश्रम के कामों में इस्तेमाल करते थे।
मेरी अति विलक्षण, असाधारण, अविस्मरणीय आंतरिक भेंट ज्ञानी जी से सन् 1985 में राष्ट्रपति भवन में हुई। इस संक्षिप्त भेंट को मैं आजीवन याद रखूंगा। हुआ यह कि हमारे एक रिश्तेदार जे. एस. पंवार नोयडा में सरकारी पद पर थे जिन्होंने मूर्खतावश त्यागपत्र देकर गुजरात के भरूच में सरिया मिल लगा लिया। गुजरात कांग्रेस के दिग्गज नेता अहमद पटेल के रिश्तेदार को फैक्ट्री मेें बेनामी पार्टनर बनाया क्योंकि उनके सहयोग के बिना गुजरात में कारखाना नहीं लग सकता था। इस तरह वे अनेक फैक्ट्रियों में बेनामी हिस्सेदार बने हुए थे। दूसरे हिस्सेदार एक सिख सज्जन थे जो सरिया मिल के इंजीनियर थे। 1984 के सिख नरसंहार के कारण उन्हें कारखाने की हिस्सेदारी छोड़ कर दिल्ली लौटना पड़ा। पंवार साहब अकेले ही रह गये। एक रात 6-7 हथियारबंद आदमी कारखाने में आये और पंवार के सीने पर तलवार रख कर बोले कि जान बचानी है तो कारखाना हमारे नाम कर दो और भाग जाओ। उस समय पंवार के अलावा फैक्ट्री में कोई आदमी नहीं था। भयाक्रान्त पंवार साहब ने कागज पर हस्ताक्षर किये और रात्रि को ही फैक्ट्री छोड़ कर भागे। कई महीने हमारे पास रहे।
‘देहात’ के उप संपादक और प्रबंधक रहे जयनारायण प्रकाश (पटवारी जी) के भाई डाॅ. परमानन्द पांचाल ज्ञानी जैल सिंह के ओ.एस.डी. थे। मैंने उनको सारा प्रकरण फोन पर बताया। उन्होंने कहा- फौरन दिल्ली आ जाओ। राष्ट्रपति भवन में वे मुझे ऐसे विशेष मार्ग से ले गये जिसका द्वार ज्ञानी जी के निजी कक्ष में खुलता था। जब हम कमरे में पहुंचे तो ज्ञानी जी बाॅथरूम में थे। कच्छा-बनियान पहिने और केशों पर कंघी करते हुए बाहर निकले और हमारे पास एक पंलंग पर बैठ गये। पांचाल साहब ने कहा- मेरा भाई है। कंघी करते करते बोले- इन्हा नूं चाय-शाय पिलाओ। मैंने कहा- मैं चाय नहीं पीता। बोले- परमानन्द, मुण्डे वास्ते दूध मंगा। मैं दूध पीता रहा, वे कंघी करते रहे। पांचाल जी ने पंवार साहब के साथ घटित घटना को बताया। ज्ञानी जी ने मुझ से पंवार का पूरा नाम पूछा और मालूम किया कि अब वे कहां हैं। मैंने नाम बताया और कहाकि मेरे पास मुजफ्फरनगर में ही हैं। पांचाल साहब से बोले- अमरसिंह नू फोन लगा। तब अमरसिंह चैधरी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। फौरन हाॅट लाइन पर आये। ज्ञानी जी बोले- अमर सिंह, पहले लोगों से कहते हो कि हमारे सूबे में कारखाने लगाओ, फिर उन्हें लुटवाते हो। मुख्यमंत्री ने कुछ जवाब दिया होगा। बोले नाम और पता नोट करो और कारखाने का पैसा मुजफ्फरनगर पहुंचाओ, कब भेजोगे? फिर रिसीवर रख के बोले- पांच दिन में पैसा पहुंच जायेगा। यह काम मिनटों में नहीं, सेकेंडों में हो गया। ट्रे की ओर देख के बोले- तुमने कुछ खाया नहीं। फिर एक सेब उठा कर बोले- लो यह खाओ। पांच दिन के बजाय चार दिनों में पैसा मुजफ्फरनगर पहुंच गया जो लाखों में था। यह सब भगवान की कृपा से हुआ किन्तु माध्यम तो ज्ञानी जी ही थे। बाद में मैं जे. एस. पंवार को दिल्ली में ज्ञानी जी के एक कार्यक्रम में ले गया और उनकी ज्ञानी जी से भेंट कराई। बताया कि आपकी कृपा से इन्हें नई जिन्दगी मिलीहै। ज्ञानी जी ने पंवार से तपाक से हाथ मिलाया और पीठ पर हाथ फेरा। उपर्युक्त चित्र उसी समय का है। आज यह सब सपने जैसा लगता है। ज्ञानी जी के उस आत्मीय व्यावहार को मैं कभी नहीं भूल सकता।
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’