पर्यावरण पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता !

पर्यावरणविद एम.सी. मेहता ने सन् 1985 में वायु प्रदूषण पर तत्काल पाबन्दी न लगाने के सरकारी रवैये के विरुद्ध एक जनहित याचिका देश की सर्वोच्च अदालत में डाली थी। वर्षो पुरानी इस याचिका पर सुनवाई के दौरान मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय किशन कौल व जस्टिस सुधांशु धूलिया की पीठ ने पराली (धान की पुराली) जलाने से पैदा होने वाले प्रदूषण से खिन्न होकर कड़ा रुख अपनाया है। जस्टिस कौल ने कहा कि उन्होंने खुद देखा है कि कैसे पंजाब में सड़क के दोनों ओर किसान पराली जला रहे हैं। पीठ ने पंजाब के डायरेक्टर जनरल को चेतावनी दी कि वायु प्रदूषण से लोग बेमौत मर रहे हैं। हम लोगों को ऐसे मरने नहीं दे सकते। शीर्ष कोर्ट ने पंजाब से सटी सभी राज्य सरकारों से कहा कि पराली की समस्या का तुरन्त हल खोजें। कोर्ट ने कहा- सरकारें एक-दूसरे पर जिम्मेदारी थोपने की राजनीति न करें। यदि हमारा बुलडोज़र चला तो वह रुकेगा नहीं। श्री मेहता की जनहित याचिका पर अभी सुनवाई पूरी नहीं हुई है अतः सम्भव है कि प्रदूषण रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट कोई सख्त फैसला करे।

देश में वायु प्रदूषण ही नहीं, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण तथा कचरा व प्लास्टिक आदि हानिप्रद वस्तुओं के फूंके जाने और गंदगी का सही ढंग से निपटारा न होने से जनता के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ रहा है। नेता व शासक झूठ बोल कर और ग़लत वायदे कर आम लोगों व अदालतों को झांसा देने के अभ्यस्त हो गए हैं। तीन वर्ष पूर्व दिल्ली में गन्दा नाला बन चुकी यमुना के तट पर अरविन्द केजरीवाल ने वीडियो बनवाते हुए कहा था कि अगली छठ पूजा वे यमुना में स्नान करने के बाद करेंगे। अन्य सैकड़ों झूठे वायदों की तरह केजरीवाल का यह वायदा भी यमुना के गन्दे पानी में बह गया। इसी प्रकार वे वाहनों से होने वाले प्रदूषण तथा पराली फूंकने को नहीं रोक पा रहे हैं और प्रदूषण का दोष दूसरी राज्य सरकारों पर मढ़ रहे हैं।

अन्य राज्य भी प्रदूषण रोकने के प्रति गम्भीर नहीं हैं। यह समस्या टाल-मटोल या बयान बाजी अथवा इलेक्ट्रानिक मीडिया के ज़रिये मिथ्या प्रचार करने से हल नहीं होगी। सरकारों को कानून बनाने के साथ-साथ जन-चेतना व जन-भागीदारी की नीति अनिवार्य रूप से अपनानी होगी।

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’

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