गुड़-बताशे से लेकर नकली रसगुल्ले तक !

13 नवंबर: भारतीय संस्कृति में पंच-पर्व अर्थात धनतेरस, दीपावली, गोवर्द्धन पूजा, भगवान धनवन्तरी पूजा और भैयादूज का बड़ा महत्त्व है। ये सारे पर्व पूजा के विधान से जुड़े हैं और पूजा-पद्धति फल, फूल, मिष्ठान से जुड़ी है। वैदिक संस्कृति में यज्ञ-हवन जैसे अनुष्ठान हैं तो पूर्णाहुति के साथ मिष्ठान की आहुति एवं प्रसाद स्वरूप ‘यज्ञशेष’ के वितरण की परम्परा भी है।

बालगोपाल श्रीकृष्ण को माखन-मिश्री कितनी प्रिय थी, इसकी गाथायें भजन-स्तुति रूप में सहस्रों वर्षों से लेकर भारत में अब भी गाई जाती हैं। लंका विजय के पश्चात श्रीराम के अयोध्या लौटने पर घर-घर दीपावली मनाने, तोरण द्वार सजाने, दुंदुभि व अन्य वाद्ययंत्र बनाने के साथ-साथ नाना प्रकार के मिष्ठान खाने व बांटने का भी उल्लेख मिलता है। गौरी पुत्र गणेश को मोदक प्रिय हैं।

मुज़फ्फरनगर मिष्ठान के मूल स्रोत गन्ने का प्रमुख केंद्र है। आज भी शुगर बैल्ट के रूप में जाना जाता है। एशिया की सबसे बड़ी गुड़-मण्डी मुजफ्फरनगर में है। कभी हजारों की संख्या में यहां कोल्हू थे जो बड़ा कुटीर उद्योग माना जाता था। गुड़ की कई किस्में-खुरपापाड़, मिन्झा, भेली, लड्डू या गिंदौड़ा आदि प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार शक्कर, राब, बूरा व खाण्ड की धूम थी। क्रिस्टलाइज़र के आने से पहले देसी अड्डे की खांड व राब का खूब प्रचलन था। बुढ़ाना में राब से ‘कंद’ तैयार होता था जिसकी भीनी-भीनी खुशबू, बेमिसाल स्वाद अतीत में खो चुका है। जैसे कन्नौज का गट्टा मुंह में डालते ही घुल जाता था, वैसे ही कन्द व फूला-फूला बताशा मुंह में घुल जाता था। रुड़की रोड पर रॉयल सिनेमा (अब चन्द्रा) कम्बलवाली गली के नुक्कड़ पर देशी खाण्ड व बताशों की प्राचीन दुकान थी, जहां गर्मागर्म बताशे तैयार होते रहते थे। भगत सिंह रोड पर, दाल मण्डी जाने वाली गली के मोड़ पर प्रकाश बूरा वालों के कारखाने में खाण्ड का बूरा व बताशे बनते थे। इसी मार्ग पर आगे चल कर मोती कचौरी वालों की दुकान के सामने गर्मागर्म बताशे बनते थे। बघरा तांगा स्टैंड के समीप बल्लम हलवाई की बताशों की बड़ी दुकान शहर में बहुत मशहूर है।

प्राचीन काल में हिन्दू व मुसलमान हर शुभ अवसर पर गुड़ व बताशों का उपयोग करते थे। दीपावली पूजन तो बिना खील बताशे के सम्भव ही नहीं है।

जिस प्रकार त्यौहारों पर बड़ी मात्रा में नकली मिठाइयां, मावा (खोवा), छेना, रसगुल्ले बनाये व बेचे जाते हैं, उसी प्रकार नकली बताशे व मीठे खेल-खिलौने, करवे आदि बड़े पैमाने पर बेचे जाते हैं। उल्लेखनीय है कि बताशा और इलायचीदाना पूजा में या शुभ अवसर पर इस्तेमाल होता है, जिसके बनाने वाले अधिकांश कारीगर मुस्लिम हैं। इलायची दाने में इलायची के बीज के बजाय चौलाई के बीज व बताशा तथा मीठे हाथी-घोड़ों में खाण्ड के बजाय चीनी का प्रयोग होने लगा है। कारीगरों का इसमें क्या दोष है? उन्हें तो अपनी रोज़ी चलानी है। कारखानेदार या दुकानदार जो भी मैटेरियल देगा, वे तो उसी का इस्तेमाल करने को मज़बूर हैं। न मालूम किस कारण से खाद्य व स्वास्थ्य विभाग के लोग त्यौहारों पर नकली मावा तथा मिठाइयां बनाने वालों पर दबिश डालते हैं, किन्तु नकली बताशे बनाने व बेचने वालों को बख्श देते हैं।

बताशों के विषय में यह लिखते हुए कहना है कि जो मिठाई भारतीय जीवन मे घुल मिल चुकी थी, उसकी महत्ता अब कम की जा रही है जबकि मुग़लिया शासन के दौरान राजधानी दिल्ली में ‘गली बताशान’ के नाम से बताशों का पूरा बाजार बना दिया गया था, उन बताशों के महत्त्व को पैसों के दीवाने, मुनाफाखोर भेड़िये, इस प्राचीन मिठाई का नामो-निशान मिटाने पर आमादा हैं। पत्थर जैसे बताशे को खाने से पहले हथौड़े से तोड़ना लाज़िम हो गया है। अजीब स्थिति है कि गुड़ बनाने में चीनी का प्रयोग होने लगा है, बताशा भी इस नयी राक्षसी तकनीक का शिकार बन चुका है।

क्या शासन से अपेक्षा की जाए कि वह सैकड़ों वर्षों से भारतीय समाज की सर्वप्रय और सर्व-सुलभ मिष्ठान के उद्धार के लिए कदम उठायेगी ?

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’

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