लेकिन वे तो चालीस नहीं, 28 थे। कोई चारा चोर, कोई राशन चोर, कोई खिचड़ी चोर और कोई टोंटी चोर। चोरों की यह जमात दशकों से लोकतंत्र का नाम ले-लेकर जाति-बिरादरी, धर्म सम्प्रदाय के सहारे अपने भाई-भतीजों, अपने परिजनों, पिछलग्गुओं के बल पर राजनीति की दुकानें चला रहे थे। मोहब्बत की ओट में नफ़रत, भेदभाव, तोड़-फोड़ , अलगाव और देशद्रोह का मसाला बेच-बेच कर अपनी तिजोरियां भर रहे थे।
सबकी अपनी-अपनी दुकानें, अपने-अपने रोजगार, अपने-अपने गिरोह। चोरों के सरदारों के अपने-अपने इलाके बटे हुए। लूट-खसोट के अपने-अपने हथकंडे। 60-70 बरसों से धंधा खूब फल-फूल रहा था। चौकीदार ने देखा तो सीटी बजा दी। घर के मालिकों को चेताया- तेरी गठरी में लागा चोरा। चौकीदार की आवाज पर लोगों की आखें खुली तो सभी चोर एकजुट हो गए। चोर-चोर मौसेरे भाई। चौकीदार को ही चोर बताने लगे।
पुलिस-प्रशासन, सीबीआई, ईडी को गालियां देने में जुट गए। माफियाओं, अपहृताओं, हत्यारों, अलगाववादियों का सहारा लेकर फिर से जनता की आंखों में धूल झोंकने के चक्कर में हैं लेकिन चौकीदार है जो चोरों को उनके सही मुकाम पर भेजने पर आमादा है। चोरों में खलबली है। कुछ अन्दर जा चुके हैं, कुछ जाने वाले हैं। फिर भी कुछ गीदड़ खुद को शेर बता कर हुआ हुआ कर रहे हैं। चोर कह रहे हैं- भारत भर के चोरों एक हो जाओ। लूट का माल पचाने का सवाल जो ठहरा। किन्तु चौकीदार कहता है कि लूट का सारा माल उनके असल मालिकान को वापिस दिला कर ही चैन लेगा। सीटी की आवाज से लोगों की आँखें तो खुली हैं। देखना है इस जागरण का क्या परिणाम निकलता है।
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’