व्यक्तित्वः जे.पी. सविता


जे.पी. सविता नाम मुजफ्फरनगर के शिक्षा एवं साहित्य जगत में समान रूप से जाना पहिचाना जाता है। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि पांच दशकों से इस नाम और इस शख्सियत से परिचित हूँ किन्तु उनका पूरा नाम क्या है, यह जानने की कोशिश कभी नहीं की- जेपी से क्या बनता है, जय प्रकाश, जगदीश प्रसाद, जयपाल, इससे मुझे कोई मतलब नहीं रहा। मैंने तो उनके उपनाम ‘सविता’ को पकड़े रखा। शायद औरों ने भी ऐसा किया होगा।

सविता का शाब्दिक अर्थ है सूर्य, तेज। भारतीय मनीषा में सविता, सवितृ, सूर्य, भास्कर, तेज, प्रभा, ओज जैसे शब्द ईश्वरीय एवं प्रकृति-सत्ता का बखान, गुणगान करते हैं।

गायत्री महामंत्र का देवता ‘सवितृ’ अर्थात सविता को माना गया है। सवितृ का स्वरूप आलोकमय तथा स्वर्णिम है। उसे स्वर्णनेत्र, स्वर्णहस्त, स्वर्णपाद, स्वर्णजिह्व की संज्ञा दी गई है। ऋग्वेद के 11 सूक्तों में सवितृ का विषद् वर्णन है।

विविध आर्ष ग्रंथों में सविता की महिमा का उल्लेख है। अनेक मंत्र एवं श्लोक सवितृ का विस्तार से निरूपण करते हैं:-
उदेति सविता ताम्र, ताम्र एवास्तऐतिच।
सम्पत्रो च विपत्तौ च महतामेक रूपता।।

जिस प्रकार सूर्य उदय और अस्त होने के समय ताम्रवर्ण का ही रहता है, उसी प्रकार महान् लोग सम्पत्ति एवं विपत्ति दोनों परिस्थितियों में एक ही समान रहते हैं:
आदित्येह्मादि भूतस्वात प्रसूत्या सूर्य उच्चयते
परंज्योतिः तमः पारे सूर्यsनं में सवितेति च

यह समस्त जगत का आदिकारण है इस लिए उसे आदित्य कहते हैं। सब को उत्पन्न करता है इस लिए सविता कहते हैं। अंधकार को दूर करता है, इस लिए उसे सूर्य कहते हैं। मुजफ्फरनगर के लाखों लोग जानते हैं कि सविता जी ने अज्ञान रूपी तिमिर को नष्ट करने को कैसे दशकों तक शिक्षा की ज्योति जगाई है।

मूल रूप से देवबन्द‌ निवासी सविता जी उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए मुज़फ्फरनगर आये। सनातन धर्म कॉलेज से बीए किया। पूर्व में यह इंटर कॉलेज था। शिक्षाविद् ध्रुवसिंह डिग्री कॉलेज के संस्थापक प्रिंसिपल थे। पहले कॉलेज मुज़फ्फरनगर के मुख्य डाकघर के समीप था। वहीं से इंग्लिश में एमए कर के वहीं शिक्षक नियुक्त हुए। तब एसडी लोइवाल प्रिंसिपल थे और बाबू छुट्टन लाल वकील कॉलेज कमेटी के चेयरमैन थे। बाद में विश्वनाथ मिश्र प्रिंसिपल रहे। केसी गुप्त हिन्दी, उमाकांत शुक्ल संस्कृत और जेपी सविता इंग्लिश के विभागाध्यक्ष रहे। जगदीश बाजपेयी जी भी हिन्दी के प्रवक्ता रहे। साहित्य में उनकी भी अभिरुचि थी और वे तथा सविता जी दोनों जिला प्रदर्शनी में होने वाले कवि सम्मेलनों के आयोजन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। मुजफ्फरनगर में पुलिस अधीक्षक पर पर नियुक्त मंजूर अहमद एसडी कॉलेज में संस्कृत की ऑनरेर क्लास लेते थे।

एसडी-कॉलेज के लाइब्रेरियन शान्ति जी का शहर में अलग ही रुतबा और सम्मान था। वे सदा नंगे पैर रहते थे। कभी सिर में कंघा नहीं किया। ढाढ़ी नहीं बनाई। सर्दी, गर्मी, बरसात खादी की सफेद बनियाननु‌मा शर्ट व खादी की लुंगी पहनते थे। उनकी कर्मनिष्ठा और सादगी का नगर के संभ्रांतजन अत्यधिक सम्मान करते थे।

इंग्लिश के शिक्षक होने के बावजूद सविता जी की हिन्दी उर्दू साहित्य और कवि सम्मेलनों में विशेष रुचि थी। सन् 60 से 80 के दशक में सविता जी ने मुज़फ्फरनगर में कई विराट कवि सम्मेलनों का आयोजन कराया। 60 के दशक में वे सनातन धर्म सभा भवन में हरिवंशराय बच्चन को लेकर आए। महाकवि गोपालदास नीरज, देवराज दिनेश, सन्तोषानन्द, काका हाथरसी, भारतभूषण, बलबीर सिंह रंग, कुँवर बेचैन, वीरेन्द्र मिश्र, ओमप्रकाश शर्मा, माया गोविन्द ‌आदि कवियों-गीतकारों को सुनने का सौभाग्य मुज़फ्फरनगरवासियों को सविता जी के प्रयासों से मिला।

अप्रैल 2024 के अंतिम सप्ताह में मैं अपने पौत्र यशवर्द्धन के साथ केड़िया कॉलोनी स्थित आवास पर उनसे मिला। इससे पूर्व और बाद में अनेक बार मिला। सदा प्यार-स्नेह से लबरेज़ दिखे। 90 बरस पार करने के बाद भी साहित्य और साहित्यकारों के प्रति जिजीविषा जाग्रत थी। चर्चा के दौरान वीरेन्द्र मिश्र की कविता की कुछ पंक्तियां जो उन्हें कंठस्थ थीं, मुझे सुनाई, जिन्हें मैंने नोट कर लिया थाः-
दूर होती जा रही है कल्पना,
पास आती जा रही है जिन्दगी
रेशमी अन्याय की अर्थी उठा
मुस्कुराती आ रही है जिंदगी।

मैंने बातचीत के दौरान ‘दाग’ का एक शे’र कहा, जिसमें कई अशुद्धियां थीं। फ़ौरन तरमीम करके नोट कराया:-
होश-ओ-हवास-ओ ताब-ओ-तवाँ ‘दाग’ जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं, सामान तो गया!

डॉ. वीएन मिश्रा के समय बाबा नागार्जुन को एसडी कॉलेज सभागार में ले आए थे। तब एसडी पीजी कॉलेज भोपा रोड पर बन चुका था। बाबा ने अपनी चर्चित कविता ‘अकाल के बाद’ सुनाई:-
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक काली कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गस्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त

अपनी कालजयी रचना ‘मधुशाला’ से देशभर में धूम मचाने वाले डॉ. हरिवंश राय बच्चन को मुजफ्फरनगर की सनातन धर्म सभा भवन में सुना। मंच के बाद‌शाह गोपाल दास नीरज को सुनने का सौभाग्य भी सविता जी की कृपा से मिला। देवराज दिनेश जब मंच पर ‘भारत माँ की लोरी’ सुनाते थे, समय मानो थम जाता था। सहस्रों श्रोता मानो जड़ बन जाते। सांस रोके दिनेश जी के एक-एक शब्द‌ को कानों के जरिये हृदय में उतार लेते थे। लोरी की अंतिम पंक्तियां आज भी कानों में गूंज रही हैं:-
सो जाओ, तुम सब सो जाओ,
ऐसी कोई बात नहीं है।
मेरे युग का प्रिय प्रहरी पूरा जागरूक है।
फिर तुम मुझसे दूर नहीं हो,
मुझे ज़रूरत होगी, तुम्हें जगा लूँगी मैं
निज विकास की मादक लोरी के स्वर
मुझको लहराने दो।

सन्तोषानन्द और मेरठ के भारतभूषण तो जैसे विख्यात कवि सविता जी के घर के लोग थे, जब चाहते, बुला लेते।
‘एक प्यार का नगमा है, मौजों की रवानी है, जिन्दगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है।’

और भारत भूषण! इविल, पाप, बुराई की जग में अनिवार्यता को कैसे उकेरते थे:-
न जन्म लेता अगर कहीं मैं
धरा बनी ये मसान होती
न मंदिरों में मृदंग बजते
न मस्जिदों में अजान होती!

डॉ. कुँवर बेचैन के दिल को छूने वाले गीत- ‘मिलना और बिछुड़ना दोनों जीवन की मजबूरी है। उतने ही हम पास रहेंगे, जितनी हमसे दूरी है।’
जब वे अपनी कालजयी रचना ‘बेटियाँ’ सुनाते तो बेटी वालों की आँखें बरबस डबडबा जाती थीं:-
बेटियाँ!
शीतल हवाएँ हैं
जो पिता के घर बहुत दिन तक नहीं रहतीं
ये तरल जल की परातें हैं
लाज की उजली कनातें हैं
है पिता का घर हृदय जैसा
ये हृदय की स्वच्छ बातें हैं
बेटियाँ !
पवन-ऋचाएं हैं
बात जो दिल की, कभी खुलकर नहीं कहतीं
हैं चपलता तरल पारे की
और दृढ़ता ध्रुव-सितारे की
कुछ दिनों इस पार हैं, लेकिन
नाव हैं ये उस किनारे की
बेटियाँ!
ऐसी घटाएँ हैं
जो छलकती हैं, नदी बनकर नहीं बहतीं
!

सहारनपुर के अध्यापक-कवि ओम प्रकाश शर्मा की कविता ‘हाथी हूल’, ‘पन्ना धाय’ अपने काल की वीररस की प्रतिनिधि रचनायें थीं।
अपने समय के लोकप्रिय गीतकार बलबीर सिंह ‘रंग’ के गीतों से श्रोता तरंगित हो जाते थे-
बेचारा बादल क्या जाने तप्त धरा की प्यास कहाँ है।
भू को पता नहीं रस-रंजित, मेघों का अधिवास कहां है
!

माया गोविन्द और न जाने कितने कवि-गीतकार! एक लम्बा सिलसिला। सविता जी की रुचि और सक्रियता से मुजफ्फरनगर में श्रोताओं का एक अनौपचारिक संगठन-समूह बन गया। कीर्ति भूषण अग्रवाल, प्रदीप जैन, प्रकाश सूना, शरद गोयल (नई मंडी) आदि जिनके कारण भोर तक कवितापाठ होता था।

सविता जी के साथ देर तक बातें चलीं। पुराने संस्मरण साझा किये। भीमसेन त्यागी, सुदर्शन चोपड़ा, आनन्द प्रकाश गर्ग का ज़िक्र आया। (भीमसेन व गर्ग साहब ‘देहात’ में काम कर चुके थे।) बताया कि अंग शिथिल हो रहे हैं। स्मृति क्षीण होती जा रही है। फिर भी जाग्रत अवस्था में बातें कीं। साहित्य के प्रति पहली जैसी अभिरुचि दिखी। चलते-चलते एक शे’र सुनाया:
ज़िंदगी चार दिन हो या सौ साल, गुज़र जाती है।
दोश (कंधा) पे खंजर हो या शॉल, गुज़र जाती है।
इन अमीरों की बा-इकबाल, गुज़र जाती है।
हम गरीबों की भी बहरहाल, गुज़र जाती है।

उनकी यह आवाज़ मेरे मोबाइल में कैद है। ‘वाणी’ ने उनका अभिनन्दन कर पुण्य कमाया। संस्था को बधाई और सविता जी के दीर्घ-स्वस्थ जीवन की प्रभु से कामना!

गोविन्द वर्मा
9368217605

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