आई.एच.नजमः फिर तेरी याद आई!
आज वे होते तो हम उनका 86वां जन्मदिन मना रहे होते। उनका जन्म 15 मई, 1938 को मुज़फ्फरनगर में हुआ था और अपने जन्मदिन से महज़ 5 दिन पहले यानी 10 मई, 2021 की हम सब को छोड़ कर चले गए। मैं अपने घनिष्ट मित्र, शायर, पत्रकार और इन सब से ऊपर, एक बेहतरीन इंसान- आई. एच. नजम, इकराम-उल-हक़ नजम मुजफ्फरनगरी का ज़िक्र कर रहा हूँ। मेरा उनसे 50 वर्षों का दोस्ती का नाता था। जब गढ़ी गोरवान वाला पुश्तैनी मकान छोड़ कर किदवाई नगर वाले मकान में शिफ्ट हुए, उससे पहले और बाद में भी घंटों-घंटों बातें होती थीं। जब तक काले मोतिया के कारण उनकी नेत्र ज्योति खत्म नहीं हुई थी, वे अपने स्कूटर से कभी भी ‘देहात भवन’ आ जाते थे। पिताश्री राजरूपसिंह वर्मा के निधन के बाद उन्होंने ‘देहात’ में कुछ दिनों काम भी किया।
अपना करियर नजम साहब ने नगरपालिका के विद्युत विभाग में मीटर रीडर के रूप में शुरू किया किन्तु यह नौकरी और पिता मा. मौहम्मद उमर साहब का टेलरिंग का काम उन्हें रास नहीं आया, हालांकि शेरवानी व पायजामा सीने में मास्टर साहब का नाम दूर-दूर तक प्रसिद्ध था, और मुज़फ्फरनगर शहर के बीचोंबीच उनकी दुकान थी।
नजम साहब की रुचि शायरी, साहित्य और पत्रकारिता में थी। दिल्ली के कई प्रसिद्ध उर्दू व हिन्दी अखबारों में संवाद प्रेषण का कार्य किया। नगर के प्रसिद्ध शायर शाहिद नूही साहब को उस्ताद बना शेर-ओ-शायरी करने लगे। भारत भर के नामचीन शौरा के साथ मंच साझा कर उन्होंने मुजफ्फरनगर का नाम रोशन किया । सन् 1992 में पाकिस्तान के कई शहरों में आयोजित मुशायरों में हिस्सा लिया। मुझे याद है कि मुजफ्फरनगर के पत्रकारों को कोई सभा, कोई बैठक और कोई सम्मेलन नजम साहब की नज़्म के बिना शुरू नहीं होती थी। 1913 में वे मोती महल स्थित मकान छोड़ कर किदवाईनगर चले गए। उनका जीवन भी भारत के एक साफ़गो और ईमानदार कलमकार की भांति संघर्षपूर्ण रहा लेकिन ज़िन्दगी के सफ़र में वे राह से कभी नहीं भटके। सन् 2007 में उनकी जीवन संगनी का इन्तकाल हो गया, वे टूटे लेकिन बिखरे नहीं। कुछ संशोधन के साथ यह शेर लिख रहा हूँ-
‘अजीब शख्स था टूटा तो इस वक़ार के साथ,
किसी को कुछ न कहा बस उदास रहने लगा।’
बच्चों-बेटियों व बेटे अरशद ने वह कमी कभी महसूस न होने दी।
आई. एच. नजम ने गद्य व पद्य में हजारों नज़्म लिखीं। उनकी पुस्तकें- दायरे खयालों के, यादों का सफ़र पद्य में हैं। दायरे खयालों के पुस्तक का प्रूफ पढ़ने का मुझे सौभाग्य मिला। अन्य पुस्तकें, दयार-ए-हरम, मनासिबे अली मौहम्मद गद्य में हैं। ‘महकते फूल’ में बच्चों के छोटे-छोटे गीत हैं।
आई. एच. नजम को राज्यपाल उत्तर प्रदेश ने उर्दू ऐकेडमी उत्तर प्रदेश में सदस्य मनोनीत किया था। मैंने कहा- ‘अब तो अपनी कोई किताब उर्दू एकेडमी से छपवा लीजिये। ऐसे लोगों की किताबें छप रही हैं, जिन्हें कलम पकड़ना तक नहीं आता।’ बोले- ‘भाई मुझ में यह महारथ नहीं हैं।’ नजम साहब की अनेक रचनायें अभी भी अप्रकाशित हैं। नजम के जाने के बाद सूना-सूना लगता है: ‘ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें, इक शख्स की यादों को भुलाने के लिए हैं।’ नजम साहब को गये तीन बरस बीत गए। यह जग की रीत है।
जाने वाले कमी नहीं आते
जाने वालों की याद आती है!
गोविन्द वर्मा