मुजफ्फरनगर के एक गिरजाघर की करुण कहानी

25 दिसंबर, 2024 को पूरी दुनिया में क्रिसमस का त्यौहार हर्ष-उल्लास से मनाया गया। मुजफ्फरनगर में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में खूब धूम रही। शहर के दो गिरजाघरों-रामभौय मार्केट स्थित (झांसी रानी चौक) के सेंट जॉन चर्च में फादर दिनेश सहाय और थाना सिविल लाइंस के सामने स्थित चर्च में फादर मारिया ने प्रभु यीशू मसीह के जीवनवृत्त, उनकी शिक्षाओं की गाथा और बाइ‌बिल के उपदेश सुनाये।

लेकिन नगर के सबसे प्राचीन, सबसे बड़े और सबसे भव्य चर्च का क्या हुआ? क्रिसमस के मौके पर वहां मोमबतियों को जलाने वाले, घंटियां बजाने वाले प्रभु यीशु के अनुयायियों का जमघट क्यूं नहीं दिखाई पड़ा? जो चर्च यीशूभक्तों की रिहाइश, आमद-ओ-रफ्त और बच्चों की किलकारियों से गुलजार था, वहां इतना सन्नाटा क्यूं पसर गया? वहां अब शोरगुल है, खूब आर जार है, कोलाहल है किन्तु मुजफ्फरनगर का सैकड़ों वर्ष पुराना चर्च खामोशी के मनहूस साये में लिपटा अपनी पहचान मिटाने पर मजबूर खड़ा दिखाई देता है।

मुजफ्फरनगर के सरकारी अस्पताल के तिराहे पर पूर्व की ओर 50 बीद्या भूमि पर बना गिरजाघर की 50-60 के दशक तक अपनी अलग शान थी। गिरजाघर में प्रार्थनाकक्ष के सामने बड़ा मैदान था। भीतर कई मकान थे, जिनमें अनेक ईसाई परिवार रहते थे। प्रतिदिन चर्च में प्रार्थना होती थी. विशेषकर रविवार को उपास्थिति अधिक होती थी। चर्च परिसर में नीम का विशालकाय वृक्ष था जिस पर हजारों पक्षी बसेरा करते थे | हजारों बुगलों से लदा नीम सफ़ेद पहाड़ जैसा दिखाई पड़त। तब तिराहे पर देवी अहिल्याबाई की प्रतिमा नहीं लगी थी। चर्च मैदान के दक्षिण-पश्चिम में पं. रामचन्द्र की पान की दुकान और पाठशाला थी। नाले के ऊपर एक सलीब के पास सेंधा नमक के ढेले रखे रहते थे, जिन्हें गोवंश चाटते रहते थे। पास में पानी की हौज थी। चर्च के उत्तर में पंजाबी मिस्त्री का मोटर वर्कशॉप था । मुजफ्फरनगर में पहला और अकेला। मिस्त्री के बेटे का नाम याकूब था।

चर्च के क्वार्टरों में कई परिवार थे, जिनमें एक जॉर्डन परिवार था। मिसेज़ जार्डन पहले नगर के कुछ डाक्टरों के यहां नर्स का काम करती थीं, बाद में डॉक्टर सांवलिया के यहां काम करने लगी थीं। इन्हीं क्वार्टरों में ईवा नामक महिला थीं, जिन्हें मैं ईवा मौसी के रूप में जानता पहचानता था। मैं भूला नहीं हूं कि ईवा मौसी मुझे देखते ही दुलारने लगती थीं। एक बार वे मेरे लिए ऊन की बुनी हुई रंग निरंगी पोशाक बना कर लाई थीं, जिनमें टोपा व मोजे भी थे। ईवा मौसी का जीवन एक दुखान्त कहानी के समान रहा। न भूला हूँ, न भुला पाऊंगा।

तब अलग मजहब, अलग धर्म, अलग पूजा पद्धति होते हुए भी सभी में प्रेम-मौहब्बत और अपनत्व था। चर्च में रहने वाले ईसाई परिवार विभिन्न कारणों से चर्च से पलायन कर गये। चर्च में महज एक आवास बचा है जिस पर रात-दिन ताला लटका रहता है। यह परिवार भी शहर में कहीं अन्यत्र रहने लगा है क्यूंकि वहां किसी परिवार के रहने का माहौल ही नहीं बचा है।

चर्च पर भू माफियाओं की नजर पड़ते ही वातावरण तेजी से बदला। चर्च के विशाल मैदान का नामोनिशां नहीं। यहां सैकड़ों दुकानें तथा व्यावसायिक स्थल बने खड़े हैं। दुकानों के कई-कई बार बयनामें हो चुके हैं। हेराफेरी में चर्च बोर्ड के लोग और भूमाफिया तथा जमीन हथियाने के तलबगार सभी शामिल रहे। चर्च के नाम पर खंडहरनुमा प्रार्थनाभवन के अलावा कुछ शेष नहीं बचा। कोई कल्पना नहीं कर सकता कि कभी यहां 50 बीघा क्षेत्रफल का विशाल गिरजाघर रहा होगा।

लगता है जहां-जहां से ईसाई पलायन कर गये वहां-वहां भूमाफियाओं ने चर्चबोर्ड पदाधिकारियों से सांठगांठ कर गिरजाघरों की जमीनों पर कब्जा कर लिया या राजनीति का अपराधीकरण करने वाले बाहु‌बली नेताओं का वहां आधिपत्य हो गया। कुछ दशक पूर्व इटावा जाने का अवसर मिला। शहर के बीचोबीच किलेनुमा विशाल इमारत देखी। पूछा तो पता चला नेता जी का पार्टी कार्यालय है। पहले यहां गिरजाघर हुआ करता था। मैदान इतना लम्बा-चौड़ा कि नेता जी का हैलीकोप्टर यहीं उतरता है। कब्जा हुआ, समाजवाद की जय जयकार हो गई।

अल्पसंख्यक ईसाई संघर्षशील और झगड़ा पसन्द नहीं है। शासन का सहारा भी नहीं है। चर्च बोर्ड के पदाधिकारियों की बेइमानी व सांठगांव से गिरजाघरों पर भूमाफियाओं की टेढ़ी नज़र लगी है। रानी झांसी पार्क के समीप वाले गिरजाघर का भी यही हश्र हुआ। ईसाई समुदाय झगड़ा या प्रतिरोध करने की स्थिति में नहीं है, इसीलिए धर्मनिरपेक्ष राज्य में यह सब घोटाला चल रहा है। जमीन के बाहर, जमीन के भीतर बाहुबलियों का दबद‌बा है। दबे मंदिरों के प्रकट होने के समय एक गिरजाघर के खंडहर बनने की यह सत्य कथा है।

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