लगभग 40 वर्ष पूर्व मुझे सहारनपुर जाना पड़ा जहां मुझे राजेश वर्मा नाम के सज्जन के पास रात्रि विश्राम करना पड़ा। वे प्रातः मुझे रामलीला भवन से आगे जंगल में शमशान घाट की ओर ले गए, वहां एक छोटा सा शिवालय और एक मन्दिर बना हुआ था। राजेश ने मुझे बताया कि यह स्थान लालदास का बाड़ा नाम से जाना जाता है। वहीं मुझे एक वृद्ध सज्जन दिखाई दिये जो ट्रांजिस्टर रेडियों से इंग्लिश के समाचार सुन रहे थे। मैं उनके पास पहुंचा और अभिवाद किया। उन्होंने मुझे बताया कि वे केरल के नम्बूदरी ब्राह्मण है। डीएसपी पद से रिटायर होने के बाद भारत भ्रमण पर निकले हैं।
मैंने पूछा कि आप शमशान घाट में क्यों टिके हैं तो उन्होंने कहा- यह शमशान घाट नहीं है। महान् सन्त की तपस्थली है। जब पहली बार आया तो ध्यान लगाते ही कानों में वाइब्रेशन आने लग गए। सुकून मिला तो यहीं रम गया। पूरे भारत में घूमा, यहां से अच्छा स्थान कोई नहीं मिला। यहीं रम गया।
कई वर्ष पश्चात मुझे ज्ञात हुआ कि परमसंत योगीराज बावा लाल दयाल जी ने इस स्थान पर दीर्घकाल तक तप किया था। अपने योग बल से गंगा की धारा प्रकट की जो पांव धोई नदी के नाम से पुकारी जाती है किन्तु गंदगी व कचरा डाले जाने के कारण बड़ा गन्दा नाला बन गई है।
इस घटना के बाद यह निश्चित हुआ कि यहां महान सन्त ने तप किया था और आज भी उनकी उपस्थिति के संकेत पात्र लोगों को मिल जाते हैं।
इसके पश्चात मुजफ्फरनगर की पुरानी घासमंडी स्थित चड्ढा परिवार के सदस्य विजय चड्ढा जी से बावा लाल दयाल जी की साधना, तपस्या एवं उनके जीवन चरित एवं शिक्षाओं के विषय में जानकारी प्राप्त हुई। चड्ढा परिवार भारत के विभाजन के समय लाहौर के लालामुसा से मुजफ्फरनगर आ गया था और उनकी कई पीढ़ियों बावा जी को मानती चली आ रही हैं। लगभग 20 वर्ष पूर्व मैं श्री विजय चड्ढा जी के साथ खतौली गया था, जहां हम दोनों चौ. अतर सिंह से मिले। उन्होंने बुढ़ाना रोड पर एक संस्कृत पाठशाला खोली हुई थी। वहीं उनसे भेंट हुई। खतौली बस अड्डे के सामने उनकी सैकड़ों बीघा जमीन थी जहां प्लाटिंग करके ‘दयालपुरम’ बसा दिया। इस कॉलोनी में ही चौ. अतर सिंह ने बावा लाल दयाल जी के नाम का स्कूल व एक सुन्दर मन्दिर स्थापित किया है जिसमें देवी देवताओं की मूर्तियों के साथ परमहंस योगीराज बावा लाल दयाल जी की सुन्दर प्रतिमा भी विराजमान है।
मैंने दयालपुरम बसाने और मन्दिर स्थापित कराने के विषय में पूछा तो चौ. अतर सिंह ने विचित्र बात बताई। उन्होंने बताया कि एक रात्रि स्वप्न में उन्हें अत्यंत तेजस्वी आकर्षक मुखमुद्रा वाले महा पुरुष के दर्शन हुए। सुबह उठकर भी उनकी मोहक छवि को भुला नहीं सका।
खतौली शुगर मिल में मेरे एक घनिष्ठ मित्र केमिस्ट के पद पर काम करते थे। मैंने (चौ. अतर सिंह सिंह ने) स्वप्न के विषय में बताया और सपने में दिखे संत स्वरूप के विषय में बताया। संयोग से उनके पास ‘पंजाब केसरी’ अखबार था जिसमें योगीराज के विषय में लेख व चित्र छपा था। उन्होंने अखबार दिखाकर पूछा- ‘कहीं ये तो नहीं दिखे थे।’ जिन्होंने रात्रि में दर्शन दिये, उनका चित्र यानी बावा लालदयाल जी का चित्र छपा था। स्वप्न में दर्शन देकर मुझे कृतार्थ कर दिया।
बावा लाल दयाल जी का जन्म लाहौर के समीप कसूर नामक स्थान में सन् 1355 में हुआ था। इनके पिता भोलाराम गांव के पटवारी थे, माता कृष्णा देवी थी। जन्म के समय से ही मुख पर अलौकिक तेज था। 8 वर्ष की आयु में ही चारों वेद उपनिषदों-धर्मग्रंथों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। चेतन स्वामी ने इन्हें शिष्य बनाया। सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर शांति, समाज एवं मानवउत्थान का सन्देश दिया। शाहजहां का पुत्र दारा शिकोह इनके ईश्वरीय ज्ञान, से बहुत प्रभावित था। शाहजहां के सूबेदार खिज्र खाँ ने बादशाह शाहजहां के कान भरे क्योंकि सहारनपुर में इनके दरबार में हिन्दुओं के अलावा मुस्लिम भी बड़ी संख्या में उपस्थित होते थे। जानकारी के लिए इस्लामी विद्वान हाजी कमलशाह को सहारनपुर भेजा। इनकी दैवी आभा और मानवीय गुणों को देख चमत्कृत हो गया। शाहजहां ने इन को हलालपुर, दाराकोटला, खानखेदी, आदि 5 गांव प्रदान किये।
बावा लाल दयाल जी 300 वर्षों तक धरती पर रह कर मानवता का कल्याण करते रहे। इनका जीवन चमत्कारों से भरा था। अपनी तपस्या साधना का उपयोग जनकल्याण में करते थे। जेम्स हेस्टिंग्स ने सन् 1832 में योगीराज के संबंध में लिखा था कि काबुल, कंधार व गजनी तक बावा लाल दयाल जी के अनुयायी थे। मुस्लिम उन्हें ‘पीर’ मान कर श्रद्धा करते थे। ढाका विश्वविद्यालय के पूर्व उप कुलपति डॉ. एच.आर मजूमदार तथा अन्य विद्वानों एवं इतिहासकारों ने बावा लाल दयाल जी के चमत्कारी जीवन के विषय में अनेक पुस्तकें लिखी हैं। भारत के विभाजन के पश्चात अब दातारपुर, ध्यानपुर, अमृतसर में गद्दियां ज्ञान का प्रकाश फैला रही हैं। देश में अनेक स्थानों में लाल द्वारे बने हैं जहां लाखों श्रद्धालुजन बावा लाल दयाल महाराज का गुणगान करते हैं। माथा टेकते हैं। सन् 1655 में श्रीध्यानपुर में डेरा जमाया और 300 वर्ष की आयु में परमलोक को प्रस्थान कर गये। दुनियाभर में बसे श्रद्धालु दूर-दूर से आकर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
गोविंद वर्मा
संपादक ‘देहात’