छात्रसंघ अध्यक्ष से लेकर राज्यपाल तक: सत्यपाल मलिक की कहानी…

पूर्व केंद्रीय मंत्री और जम्मू-कश्मीर सहित कई राज्यों के पूर्व राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक का आज दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में निधन हो गया। लंबे समय से बीमार चल रहे मलिक का राजनीतिक जीवन जितना विविधताओं से भरा रहा, उतना ही चर्चाओं और विवादों से भी। कभी केंद्र की मोदी सरकार के भरोसेमंद माने जाने वाले सत्यपाल मलिक को बिहार, ओडिशा, गोवा, मेघालय और जम्मू-कश्मीर जैसे महत्वपूर्ण राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया गया था।

खास बात यह रही कि अनुच्छेद 370 को हटाने जैसे ऐतिहासिक फैसले में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण मानी गई, जबकि अपने लंबे राजनीतिक जीवन में वे इसके विरोधी माने जाते थे। उनके कार्यकाल में ही जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने की प्रक्रिया शुरू हुई थी।

40 वर्षों का निजी रिश्ता और संघर्षों की साझी स्मृतियां

पत्रकारिता में आने से पहले से ही लेखक का सत्यपाल मलिक से व्यक्तिगत परिचय था। 1967 में मेरठ विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष के रूप में उनका राजनीतिक सफर शुरू हुआ था। समाजवादी विचारधारा से प्रेरित मलिक युवा पीढ़ी में खासे लोकप्रिय रहे। बाद में वे चौधरी चरण सिंह के करीबी हो गए और बागपत से सबसे कम उम्र के विधायक बने। एक समय उन्हें चरण सिंह के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में भी देखा जाने लगा।

आपातकाल का विरोध कर जेल जाने वाले मलिक समय के साथ कांग्रेस में भी शामिल हुए। जनता पार्टी के विघटन के बाद उन्होंने इंदिरा गांधी और चरण सिंह के बीच संवाद की कोशिशों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। समाजवादी मूल्यों और किसान हितों की पैरवी करने वाले मलिक से पत्रकार का रिश्ता 1980 के दशक में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की रिपोर्टिंग के दौरान और मजबूत हुआ।

किसान हितों के पैरोकार, विचारों से कभी समझौता नहीं किया

सत्यपाल मलिक राजनीति में चाहे जिस भी पार्टी में रहे हों, किसानों के मुद्दों को लेकर उनकी प्रतिबद्धता कभी नहीं बदली। भाजपा में रहते हुए भी उन्होंने किसान आंदोलन पर केंद्र सरकार की आलोचना करने से परहेज नहीं किया। यही कारण था कि कई बार पार्टी लाइन से अलग जाने के चलते वे असहज भी दिखे।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अलावा हरियाणा, पंजाब और राजस्थान में भी उनके समर्थक और अनुयायी मौजूद थे। वीपी सिंह सरकार में मंत्री रहते हुए भी उनकी लोकप्रियता बनी रही। उन्होंने कांग्रेस, भाजपा, लोकदल और अन्य दलों के साथ काम किया, लेकिन विचारधारा और पारदर्शिता उनके व्यवहार की खास पहचान रही।

व्यक्तित्व ऐसा कि पद कभी आड़े नहीं आया

अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने कई पदों को सुशोभित किया, लेकिन सहजता और सरलता कभी नहीं छोड़ी। राज्यपाल रहते हुए भी आम लोगों के लिए वे उतने ही सुलभ रहे। अक्सर स्वयं फोन उठाते और पुराने परिचितों से आत्मीयता से बात करते। लेखक ने एक संस्मरण साझा किया कि जब वे केंद्र में मंत्री बने तो छह महीने बाद मिलने पर मलिक ने उलाहना दिया कि अब खबर नहीं लेते। तब उन्होंने कहा, “जिस दिन पद मेरे और लोगों के बीच आ जाए, उस दिन मैं पद छोड़ दूंगा।”

उनका यह वादा उन्होंने जीवनभर निभाया। राज्यपाल बनने के बाद भी उन्होंने पत्रकार को “सत्यपाल भाई” कहने की ही सलाह दी। वे अक्सर अपने राजनीतिक अनुभवों को साझा करते थे और लेखक उन्हें यह सलाह देते थे कि इन अनुभवों को एक किताब का रूप दें। उनका जवाब होता, “लिखूंगा तो कई चेहरों के पीछे का सच सामने आ जाएगा।”

एक अधूरी राजनीतिक संभावना की विदाई

हिसावदा गांव से शुरू हुई उनकी यात्रा राष्ट्रीय राजनीति के कई ऊंचे मुकामों तक पहुंची। लेकिन, उनके भीतर छिपी गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपाई राजनीति की संभावना समय के थपेड़ों में पूरी तरह आकार नहीं ले सकी। सत्यपाल मलिक के निधन से केवल एक राजनेता नहीं, बल्कि एक बेबाक और विचारधारा से प्रतिबद्ध व्यक्तित्व का अंत हो गया।

लेखक के लिए यह केवल एक सार्वजनिक व्यक्ति का जाना नहीं, बल्कि एक आत्मीय संबंध की समाप्ति भी है। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

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