नई दिल्ली। विदेश मंत्री एस. जयशंकर अमेरिका में हैं और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र के दौरान ओआरएफ द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया। इस मौके पर उन्होंने वैश्विक कार्यबल की बढ़ती जरूरतों पर बात करते हुए कहा कि बदलती दुनिया में कई देशों की अपनी आबादी के आधार पर श्रमबल की मांग पूरी करना मुश्किल हो गया है। उन्होंने कहा कि यह एक वास्तविकता है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
जयशंकर ने यह भी स्पष्ट किया कि वैश्विक कार्यबल को कहां और कैसे समायोजित किया जाए, यह राजनीतिक बहस का विषय हो सकता है, लेकिन इसकी आवश्यकता से बचा नहीं जा सकता। उनके अनुसार, मांग और जनसांख्यिकी को देखते हुए कई देश अपनी राष्ट्रीय आबादी के आधार पर कामगारों की जरूरतें पूरी नहीं कर पा रहे हैं।
यह बयान ऐसे समय में आए हैं जब अमेरिकी प्रशासन ने एच-1बी वीजा शुल्क में भारी वृद्धि की है और इमिग्रेशन नियमों को सख्त किया है। जयशंकर ने कहा कि इस कदम से भारतीय पेशेवरों पर असर पड़ा है और वैश्विक अर्थव्यवस्था को इसका समाधान खोजना होगा।
उन्होंने रोजगार की बदलती प्रकृति पर भी ध्यान दिलाया और बताया कि डिजिटल क्षमताओं और तकनीकी बदलाव नई विशेषज्ञताओं और कौशल की मांग पैदा कर रहे हैं। व्यापार में टैरिफ और नॉन-टैरिफ बाधाओं के बावजूद, जयशंकर ने कहा कि देश अपने रास्ते खोज लेते हैं और डिजिटल व भौतिक दक्षताओं का लाभ उठाकर नई प्राथमिकताएं तय करते हैं।
विदेश मंत्री ने आगे कहा कि नई परिस्थितियों में नए व्यापारिक समझौते और नीतियां सामने आ रही हैं। उन्होंने चेतावनी दी कि लगातार सख्त नीतियां लगाने से देशों की वैश्विक साख पर असर पड़ सकता है।
जयशंकर ने आत्मनिर्भरता और डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर (डीपीआई) पर भी जोर दिया और बताया कि भारत का मॉडल यूरोपीय या अमेरिकी मॉडल की तुलना में अधिक प्रासंगिक और अपनाने योग्य है। उन्होंने कहा कि बढ़ती अनिश्चितता और वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में अत्यधिक निर्भरता से बचने के लिए देशों को ‘डि-रिस्किंग’ की नीति अपनानी होगी, जो आज की कूटनीति का केंद्रीय मुद्दा बन गया है।