गांव नाहरी के रवि दहिया भले ही फाइनल मुकाबले में हार गए, लेकिन उनके सिल्वर मेडल जीतने पर उनके गांव में जश्न का माहौल रहा। लेकिन इस कामयाबी के पीछे रवि समेत पूरे परिवार ने 4 साल तक मेहनत की। एक समय ऐसा भी था जब कोई रिजल्ट नहीं आ रहा था तो खेल छुड़वाने की बात भी हुई। लेकिन रवि ने कहा कि मैं और प्रेक्टिस करूंगा और जीत कर भी दिखाऊंगा।
एक खिलाड़ी की खुद पर यकीन यह बानगी 14 साल की उम्र में देख कोच अरुण इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने अंतरराष्ट्रीय करियर को किनारे कर कह दिया अब इसकी जिम्मेदारी मेरी है। एक साल लगातार मेहनत की। शारीरिक रूप से दुबले-पतले रवि की पहले स्टैंथ बढ़ाई।
रवि का अरुण ने लगातार बढ़ाया हौसला
अरुण ने खुद जूनियर एशिया में मेडल जीतने के साथ राष्ट्रमंडल कुश्ती चैंपियनशिप में भी मेडल जीते हुए हैं। परिजनों ने रवि को अरुण के हवाले किया। 2007 से लेकर ओलिंपिक के फाइनल मुकाबले तक अरुण इकलौता ऐसा व्यक्ति था जो निरंतर रवि के संपर्क में रहा। सेमीफाइनल और फाइनल से पहले भी रवि ने अरुण से बातचीत की। अरुण ने रवि को बिना दबाव केवल बेस्ट देने के लिए कहा।
7 साल की उम्र में शुरू कराई पहलवानी
रवि के पिता राकेश दहिया ने बताया कि उसे पहलवान बनाने की ख्वाहिश मेरी थी। रवि को सात साल की आयु में ही प्रशिक्षण के लिए भेज दिया। फिर 2007 में छत्रसाल स्टेडियम में छोड़ दिया। सबसे बड़ी समस्या आर्थिक तंगी की थी, क्योंकि खुद की जमीन के बजाए दूसरे की जमीन लेकर खेती की। ऐसा एक नहीं दो बार हुआ जब फसल में ज्यादा पानी आने के कारण पूरी की पूरी फसल नष्ट हो गई। एक बार 70 तो इसके बाद 95 हजार रुपए का नुकसान झेला, लेकिन रवि पर इसका असर नहीं होने दिया। घर का बजट और कम कर दिया। तीन साल तक नए कपड़े नहीं सिलवाए।
पारीवारिक विवाह शादियों से भी दूरी बनाई। कोई वाहन नहीं खरीदा। पैदल या किसी अन्य के साथ जाकर अपने कार्य करते। रवि को घर का दूध, घी मक्खन मिले इसके लिए गाय लेकर आए। सुबह साढ़े तीन बजे उठते, पांच किलोमीटर चलकर रेलवे स्टेशन पहुंचते। स्टेडियम तक दूध और मक्खन लेकर पहुंचते। फिर घर पहुंचकर खेतों में काम करने का यह सिलसिला 12 साल तक चला। इस बीच भी खुशी और तकलीफ दोनों मिलती रही। हिम्मत इसी से मिलती कि रवि चोट लगने के बाद भी खेल नहीं छोड़ता।