आज कोई भूमिका नहीं। कोई शब्द विन्यास नहीं। नयी पीढ़ी को यह बताने की लालसा है कि भारत की स्वाधीनता के निमित्त जिन बलिदानियों ने प्राण उत्सर्ग किये- फांसी के तख्ते पर चढ़ते समय उन्होंने क्या कहा था। नयी पीढ़ी को जानना ज़रूरी है कि आज़ादी केवल चरखा चलाने से नहीं मिली, मातृभूमि की बलिवेदी पर शीश चढ़ाने वालों का भी इसमें बड़ा योगदान था।
9 मई, 1927 को फांसी के फंदे पर झूलने से पहले अमर शहीद पं. रामप्रसाद बिस्मिल ने यह क्रांतिकारी तराना सुनाया था:
तू ही तू रहे!
मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे
बाक़ी न मैं रहूं, न मेरी आरज़ू रहे।
जब तक तन में जान, रगों में लहू रहे
तेरा ही ज़िक्र या तेरी ही आरज़ू रहे।
लीजिये आख़िरी आदाब, जा रहे हैं हम
जो इंकलाबी को मिलता है, पा रहे हैं हम।
खिदमते मुल्क में मरने की खुशी है हमको
दुःख है कि आज़ादी से पहले जा रहे हैं हम।
काश! आंख देख लेती आज़ाद वतन को
सजा-ए-मौत जिस लिए कि पा रहे हैं हम।
आज न सही, कल सही, इसके बाद सही
होगा आज़ाद वतन, यह सुना रहे हैं हम।
23 मार्च, 1931 को जब शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह ने फांसी के तख्त पर चढ़ते ही भारत माता की जय और इंकलाब जिन्दाबाद कहा और स्वरचित यह शेर पढ़ा:
कोई दम का मेहमान हूँ, ए-अहले-महफ़िल,
चरागे सहर हूँ, बुझा चाहता हूँ।
मेरी हवाओं में रहेगी, ख़यालों की बिजली
यह मुश्त-ए-ख़ाक है फ़ानी, रहे रहे न रहे!
और चंद्रशेखर आज़ाद, अशफाकुल्ला खां, चाफेकर बंधु, खुदीराम बोस, शाहमल, धनसिंह कोतवाल, मोहरसिंह, किस-किस के नाम गिनायें। शहीदान-ए-वतन अनेक बलिदानियों के नाम वंशवादी इतिहास लिखने वाले चारण भूल गए लेकिन देश हज़ारों-लाखों ज्ञात-अज्ञात बलिदानियों को कभी भूल नहीं सकता।
नये भारत के निर्माण में जुटे नौजवानों को कविश्रेष्ठ रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ का आह्वान सुनना चाहिए:
पूरा न हुआ अभी हमारा स्वतंत्रता का बाना,
देशप्रेम के ओ मतवालों उनको भूल न जाना
भारत माता की जय!
गोविंद वर्मा
संपादक देहात