जाति ही पूछो वोटर की !


यकीनन, जब सन्त कबीर ने कहा होगा- ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान, मोल नहीं तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान’, तब भी हिन्दुस्तान में जातिवाद का बोलबाला होगा। शायद इसीलिए कबीर जी ने लोक-कल्याण के लिए साधु-संतों की जाति जानने की प्रथा को छोड़‌ने का आग्रह किया होगा। कबीर के समय सन्त-समाज ही पथ प्रदर्शक था अतएव उनसे जाति पूछना ग़लत माना गया।

इस दोहे का लोग अपने-अपने हिसाब से अर्थ निकालते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे आज असदुद्दीन ओवैसी और सुधांशु त्रिवेदी, खरगे व संबित पात्रा भारतीय संविधान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकतंत्र (लठतंत्र भी), धर्मनिरपेक्षता आदि की अपने-अपने ढंग से व्याख्या करते हैं और मतलब निकालते हैं।

निरक्षर कबीर के दोहों व साखियों पर सैकडों पढ़े-लिखों ने पीएचडी कर ली लेकिन उनके ‘दो आखर’ समझना टेढ़ी खीर है। उनके दोहे बोध-गम्य भी हैं, दुरूह, पेंचीदा भी। दो पांक्तयों के दोहे की व्याख्या 20 पृष्ठों में भी लिखी जा सकती है और दो पंक्तियां जीवन-दर्शन भी बन सकती हैं।

हम समझते हैं (आप अपनी बुद्धिअनुसार सोचें!) कि कबीर ‘तलवार’ को जातिवाद‌ के रूप में देखते थे और उसे म्यान में पड़ी रहने की सलाह दे रहे थे।

कबीर के समय में साधुजन सकल समाज का मार्गदर्शन करते थे। आज तो नेतागण ही सर्वाधार हैं। इनके बूते ही लोकतंत्र, धर्म निरपेक्षता की गाड़ी दौड़ती है। कबीर ने जाति न पूछने, जातिवाद को म्यान में पड़ी रहने की शिक्षा दी थी, आज तो नेताओं का ब्रह्मास्त्र जातिवाद ही है। विपक्ष जातिगणना की तलवार चला ही रहा है, सत्ता दल के नेता केशव प्रसाद मौर्य भी कह रहे हैं कि भाजपा के अधिकांश नेता भी जातिवादी जनगणना चाहते हैं। गृहमंत्री अमित शाह को जाति गणना से परहेज़ नहीं किन्तु वे कुछ दूसरी तरह की जातिगणना चाहते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तो युवाओं, महिलाओं, किसानों व गरीबों की महज़ चार जातियों को ही जानते हैं। जातियों का वर्गीकरण भी तो जातिवादी राजनीति का ही तरीका है।

आज जिन राज्यों की विधान सभाओं के चुनाव परिणाम सामने आये हैं, वहीं राहुल गांधी तथा क्षेत्रीय दलों ने जातीय जनगणना को चुनाव का मुख्य मुद्दा बनाया था । राहुल, खरगे, अशोक गहलोत, भूपेंद्र बघेल ने मतदाताओं से कहा था कि यदि राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनीं तो हम जातीय जनगणना करायेंगे लेकिन जातिवाद का यह तीर निशाने पर नहीं लगा और तीन बड़े राज्यों- मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में मतदाताओं ने जातिवाद को नकार विकासवाद को प्रश्रय दिया है किन्तु यह अभी नहीं कहा जा सकता कि जातिवादी तीर या तलवार की धार पूरी तरह भोथरी हो गई है।

जातीय राजनीति की जड़ें पाताल तक उत्तरी हुई हैं। इन हालातों को देखते हुए संविधान सभा में डॉ. भीमराव अम्बेडकर, जवाहरलाल नेहरु, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जातिवाद व जातीय जनगणना का डटकर विरोध किया था। सनातन वैदिक संस्कृति के संवाहक ऋषि दयानंद सरस्वती ने जातिवादी पाखंड पर कड़ा प्रहार किया था। भले ही आज समाजवादी नेता जातिवाद का झंडा लेकर चल रहे हों, किन्तु जिन्हें ये अप‌ना पथ-प्रदर्शक मानते हैं, उन डॉ. राम मनोहर लोहिया ने ही देश भर में ‘जाति तोड़ो’ आन्दोलन चलाया था। आज भी सकौती आश्रम के स्वामी चन्द्रमोहन जी व युवा

सन्यासी स्वामी दीपांकर जातिवाद के विरुद्ध अलख जगा रहे हैं। भारत के मुख्य न्यायधीश जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ ने अभी 25 नवंबर को बंगलूरू में आयोजित 36 वें ‘लॉ एशिया’ सम्मेलन में जातिवादी सोच पर जम कर हल्ला बोला। सीजेआई ने कहा- ‘आज के परिवेश में हम जातिवाद के बंधनों में राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक सरोकारों को जारी नहीं रख सकते। पूर्वाग्रहों को त्याग कर और आगे बढ़‌ना हमारी नियति है।’

निश्चित ही यह एक लम्बी लड़ाई हैं जिसके लिए नई पीढ़ियों को तैयार रहना है। जंग की शुरुआत हो चुकी है। नतीजा विलम्ब से आयेगा, लेकिन सही आयेगा, वह भारत को विश्व गुरु के रूप में लाकर खड़ा करेगा।

गोविन्द वर्मा

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