सामान्यतः नैतिक रूप में भी, और क़ानूनी दायरे के अनुरूप हमें अदालत के किसी फैसले के पक्ष में अथवा विरोध में टिप्पणी नहीं करनी चाहिए किन्तु मुज़फ्फरनगर के चर्चित रामपुर तिराहा कांड पर 30 वर्षों के अंतराल के बाद लिये गए निर्णय पर अपर जिलाधिकारी एवं सत्र न्यायधीश शक्ति सिंह की मुक्तकंठ से प्रसंशा करने पर लेखनी बाध्य है।
108 पृष्ठों के निर्णय में माननीय न्यायधीश ने पीएसी के रिटायर्ड सिपाही मिलाप सिंह व वीरेंद्र प्रताप सिंह को दुष्कर्म के अपराध पर आजीवन कारावास की सजा सुनाई। दोषियों पर आईपीसी की अन्य धाराओं में भी कार्यवाही हुई है। मुज़फ्फरनगर के न्यायिक इतिहास में शायद ही कभी ऐसा मामला पेश हुआ हो।
न केवल मुज़फ्फरनगर के लोग अपितु पूरा देश जानता है कि 1 अक्टूबर, 1994 की रात्रि में मुज़फ्फरनगर के रामपुर तिराहे पर तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की पुलिस ने उत्तराखंड वासियों पर कैसा जुल्म ढाया था। कुछ लोग इसकी तुलना अमृतसर में हुए जनरल डायर के नरसंहार से करते हैं किन्तु हमारी दृष्टि से यह कांड उससे भी कई अधिक भयावह, मानवता विरोधी तथा पुलिस और शासन की कलुषित मानसिकता का द्योतक था।
जैसा की विदित है पृथक उत्तराखंड की मांग करने वाले आदोलनकारी 2 अक्टूबर को गाँधी जयंती पर दिल्ली में प्रदर्शन करने के लिए 14 बसों के जरिये देहरादून से रवाना हुए थे। उस समय देश के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव थे। उत्तरप्रदेश सरकार की बागडोर मुलायम सिंह यादव के हाथ में थी। मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश के विभाजन के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने शासन के तमाम आलाअफसरान को बुला कर हिदायत दी कि किसी भी हालत में एक भी सत्याग्रही दिल्ली नहीं पहुंचना चाहिए। रामपुर तिराहे पर उत्तराखंडी आंदोलनकारियों को, जिनमे महिलायें भी थीं, रोक लिया गया। पुलिस और पीएसी जवानों ने बसों पर लाठियां बरसाई और जबरन आंदोलनकारियों को बसों से घसीटकर नीचे उतारा। तब मुज़फ्फरनगर के जिलाधिकारी अनंत कुमार सिंह हुआ करते थे। एसपी राजेंद्रपाल सिंह थे, जो रामपुर तिराहे पर मौजूद थे। यही नहीं आईजी जोन एसएम नसीम व डीआईजी बुहा सिंह भी मौजूद थे। खींचतान में कई महिला सत्याग्रहियों के कपड़े फट गए और कुछ निर्वस्त्र भी हो गयी थीं। नग्न व अर्द्धनग्न महिलाएं पास के गन्ने के खेतों में छिप गयी। इसी बीच लाठी चार्ज तथा फायरिंग शुरू हो गया।
वरिष्ठ पत्रकार ऋषिराज राही की जिलाधिकारी अनंत कुमार सिंह से इस स्थिति पर कुछ बात भी हुई थी। जिसका जिक्र उन्होंने अपनी रिपोर्टिंग में किया था। इस बातचीत का आशय यह निकलता था कि आधी रात में गन्ने के खेत में क्या हो सकता है? तब जिलाधिकारी का यह शर्मनाक बयान मीडिया में छा गया था। लाठी और गोली चार्ज में सैकड़ो की संख्या में महिला-पुरुष सत्याग्रही घायल हुए तथा रविंद्र रावत, सतेंद्र चौहान, गिरीश भदरी, राजेश लखेड़ा, सूर्यप्रकाश थपलियाल, अशोक कुमार व राजेश नेगी गोली कांड में शहीद हो गए। पुलिस ने अपनी काली करतूतों पर पर्दा डालने के लिए जमकर फर्जीवाड़ा किया और गन्ने के खेतों से हथियार बरामद कर उल्टा आंदोलनकारियों को ही दोषी सिद्ध करने का ओछा हथकंडा अपनाया।
मुलायम सिंह यादव दोषी अधिकारियों को दंड देने के बजाय उन्हें बचाने में जुट गए। इतना लोमहर्षक तथा पैशाचिक कांड होने के उपरांत भी जिम्मेदार किसी भी प्रशासनिक-पुलिस अधिकारी पर चार्जशीट दाखिल नहीं की गई। तमाम अधिकारियों के नाम निकाल दिए गये। यहां तक कि तत्कालीन जिलाधिकारी अनंत कुमार सिंह का नाम चार्जशीट में आने के बाद हटा दिया गया। सबसे बड़ा हथकंडा यह हुआ कि रामपुर तिराहा कांड से सम्बंधित 3 पत्रावलियां ‘चोरी’ दिखा दी गईं।
इस कांड के तीन महत्वपूर्ण बिंदु हैं। पहला यह कि राजनीति दोषियों को बचाने का काम करती है। दूसरा, यह कि जब किसी मुद्दे पर राजनीति आड़े आ जाती है तब सच्चाई और मनुष्यता गायब हो जाती है। तीसरा, यदि कोई ईमानदार न्यायिक अधिकारी चाहे तो सच्चाई सामने आ जाती है।
गौरतलब है कि जहां 1 अक्टूबर, 1994 को यह भयानक कांड हुआ उसके इर्दगिर्द कई मुस्लिम बहुल ग्राम हैं। जब गोलियां चलने लगी और हाहाकार मचा तब इन गांवों के लोग घटनास्थल पर दौड़ पड़े और पीड़ितों की रक्षा की। कई अर्द्धनग्न महिलों पर चादरें डालीं और उन्हें सुरक्षित अपने घरों में रखा। हिन्दू-मुस्लिम का कोई भेद नहीं रहा। बाद में जब राजनीति का चक्र चला तो वे ही लोग मुलायम सिंह यादव के कट्टर समर्थक बन गये। इसी प्रकार आईपीएस अधिकारी बुहा सिंह, जो मुलायम सिंह के परम भक्त थे, बाद में मायावती के विश्वसनीय अधिकारी बन गये। रामपुर तिराहा कांड पर दिवंगत महावीर प्रसाद शर्मा तथा अन्य मानवतावादी सज्जनों को याद किया जाना स्वभाविक है। न्यायालय ने फोटोकॉपी के आधार पर ही मुक़दमे को अंजाम तक पहुंचाया। एक वर्ष में फैसला कर दिया। 3 में से एक मिसल पर अभी फैसला आया है, कई गुनेहगार फरार हैं। बड़े मगरमच्छों को नेता जी के कारण अभयदान मिल गया। काले अक्षरों में लिखी रामपुर तिराहा कांड की गन्दी इबारत का एक पृष्ट ही खुल सका है। लगता है यह किस्से कहानियों में ही अब सुना जायेगा। फैसला करने वाले न्यायधीश प्रशंसा के पात्र हैं।
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’