16 अक्टूबर, 2024 को श्रीनगर की डल झील के किनारे शेर-ए-कश्मीर इंटरनेशनल कन्वेंशन सेंटर में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल मनोज सिन्हा ने शेख अब्दुल्ला खानदान की तीसरी पीढ़ी के उमर अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई। उमर के दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर लोगों को, विशेषकर राष्ट्रभक्त देशवासियों को कुछ कड़वी सचाइयां अपने मन-मस्तिष्क में धारण करनी पड़ेंगी।
पहले इन के बाबाश्री के इतिहास पर दृष्टिपात कीजिये। 8 अक्टूबर, 1947 को महाराजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर रियासत के भारत में विलय की घोषणा की। पं. जवाहरलाल नेहरू ने वायसराय माउंटबेटन और अपने निकटस्थ मित्र शेख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री (मुख्यमंत्री नहीं) बनाया। मुस्लिम बहुल कश्मीर में मुसलमानों को भड़काने में जुटे शेख अब्दुल्ला कश्मीर को पाकिस्तान की तरह इस्लामिक स्टेट बनाने की धुन में थे। नेहरू की सहायता सहयोग से वे प्रधानमंत्री तो बन गए, जम्मू-कश्मीर का अपना अलग संविधान, अलग झण्डा भी बना डाला। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे राष्ट्रभक्त शेख अब्दुल्ला की राष्ट्रद्रोही हरकतों से विचलित होने लगे। नेहरू की सांठगांठ से शेख अब्दुल्ला ने भारतीयों के कश्मीर प्रवेश के लिए परमिट (यानी वीजा) लेना अनिवार्य कर दिया। डॉ. मुखर्जी ने जम्मू की सीमा पर जाकर इन सब का विरोध किया तो उन्हें जेल में डाल ज़हर देकर हत्या कर दी गई।
शेख अब्दुल्ला का भारत विरोध और पाकिस्तान प्रेम खुल कर परवान चढ़ने लगा। आये दिनों वे भारत के विरुद्ध जहर उगलने लगे। नेहरू का रुख उनके प्रति सगे भाई जैसा था। शेख अब्दुल्ला के बाबा बालमुकुन्द सप्रू गोत्र के ब्राह्मण थे किन्तु अब्दुला खुद को बाबर का वंशज मानकर अपनी राजनीति चलाते रहें। नेहरू मंत्रिमंडल के राष्ट्रवादी सोच के मंत्री व देश का जनमानस शेख अब्दुल्ला की गद्दारी व पाकिस्तान प्रेम से अत्यंत खिन्न और नाराज़ था।
शेख अब्दुल्ला खुल कर कहने लगा कि भारत ने कश्मीरी मुस्लिमों को अपना गुलाम बना रखा है। उन्हें आत्मनिर्णय का अधिकार मिलना चाहिए। राष्ट्रसंघ में भी यही राग अलापा। 29 सितंबर, 1950 को भारत स्थित अमेरिकी राजदूत रॉल हेंडरसन से मिलकर शेख अब्दुल्ला ने उससे कहा कि अमेरिका को जनमत संग्रह के पक्ष में खुल कर खड़ा होना चाहिये।
अंततः शेख अब्दुल्ला को राष्ट्रद्रोह के अपराध में 8 अगस्त, 1953 को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। वह 11 वर्षों तक जेल में बन्द रहा।
कश्मीरी होने के नाते नेहरू खानदान का प्यार फिर उमड़ा और इन्दिरा गांधी ने 9 अप्रैल, 1964 को गद्दार शेख अब्दुल्ला पर लगे सभी आरोप वापस लेते हुए उसे जेल से रिहा कर दिया। 16 मई, 1964 को शेख अब्दुल्ला ने भारत के विरुद्ध फिर ज़हर उगला। उसने कहा- ‘भारत ने कश्मीर में खुद अपनी कब्र खोद ली है।’
शेख अब्दुल्ला ने ही कश्मीर में आतंकवाद, अलगाववाद की जड़ें जमाई। वह खुद को बालमुकुन्द सप्रू का नहीं अपितु 10 हजार कश्मीरी पंडितों के जनेऊ फुंकवाने और उनकी हत्या कराने वाले बुतशिकन महमूद ग़ज़नवी, रिंचनशाह, बाबर को अपना पुरखा मानता था।
उसके वंशज फारूख अब्दुला और उमर अब्दुल्ला भी यही मानते हैं। तीसरी बार जब फारूख 1986 से 1990 तक जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री रहा तो उसने अपने वालिद शेख अब्दुला के नक्शेकदम पर चलते हुए अलगाववाद और कश्मीरी हिन्दुओं के प्रति घृणा, वैमनस्य, उन्माद फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लन्दन भागने से पहले वह घाटी के एक-एक गांव में घूमा और भारत तथा कश्मीरी पंडितों के विरुद्ध जमकर विषवमन किया। कश्मीरी मुसलमानों को यह कह कर उकसाया कि कश्मीर के असली वारिस, हकदार, कब्जेदार तो तुम ही हो।
फारूख की जुनूनी तकरीरों से कश्मीरी पंडितों के विरुद्ध मुसलमानों का तास्सुबी जिन्न बाहर आया और 19/20 जनवरी, 1990 की काली रात को घाटी की हर मस्जिद से एक साथ आवाजें उठीं- काफिरों, कश्मीर छोड़ो, मुजाहिद आ रहे हैं। इस्लाम कबूलो या मरो, अपनी औरतों को छोड़कर भाग जाओ।
फिर चला नरसंहार और सामूहिक बलात्कारों का दौर। जस्टिस नीलकंठ गंजू, इंजीनियर बालकृष्ण, दिल्ली दूरदर्शन निदेशक लक्षा कौल चर्चित नाम हैं, जिनकी हत्यायें हुईं। गिरिजा टिक्कू व सरला भट्ट के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद आरा मशीन से चीर कर उन्हें जला दिया गया। हिन्दुओं की दुकानों, मकानों और सेब के बागानों पर अभी भी हत्यारों के कब्जे हैं।
जम्मू-कश्मीर की 90 सीटों में से 42 सीटें नेशनल कांफ्रेंस को इसलिए नहीं मिलीं कि जम्मू-कश्मीर में नरेंद्र मोदी का ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा काम आ गया और वहां जम्हूरियत का सूरज चमकने लगा है या फिर इसलिए नहीं कि वहां के नौजवानों के हाथों में पत्थरों के बजाय किताबें आ गई हैं। नेशनल कांफ्रेंस को इसलिए कश्मीरी मुस्लिमों का समर्थन मिला कि वे उमर अब्दुल्ला में शेख अब्दुल्ला की छवि देखते हैं, जिन्हें वे आज भी शेर-ए-कश्मीर मानते हैं इन्होंने नेशनल कांफ्रेंस को यह सोचकर वोट दिये कि शेख अब्दुल्ला का सपना भले ही उनका बेटा फारूख पूरा न कर पाया हो, उनका पोता उमर जरूर पूरा करेगा।
गौरतलब है कि प्रचार अभियान के दौरान फारूख, उमर और चुनावी पार्टनर राहुल गांधी ने एक बार भी राष्ट्रहित के परिपेक्ष्य में कश्मीर के ज्ज्वलन्त मुद्दों की चर्चा नहीं की। लोकतंत्र के दुश्मन परिवारवाद, वंशवाद, घाटी में कट्टरता, आतंक व अलगाववाद, टारगेट किलिंग तथा कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास पर पिता-पुत्र ही नहीं, राहुल भी एक शब्द नहीं बोले। सबने अनुच्छेद 370 के खात्मे का रोना रोया।
दिल्ली वालों को किसी मुगालते में रहने की जरूरत नहीं। चुनाव प्रचार में पिता-पुत्र और राहुल ने अनुच्छेद 370 का खूब रोना रोया था। कश्मीरी मुसलमानों ने उमर अब्दुल्ला को इसलिए मुख्यमंत्री नहीं चुना कि उन्होंने अपनी टोपी उतार कर मतदाताओं के कदमों पर रख दी थी या वे जम्हूरियत के बड़े झंडाबरदार हैं। कश्मीर के मुसलमानों ने, चाहे वे पहाड़ी हों, बकरवाल हों या पसमान्दा हों, इसलिए चुना कि वे शेख अब्दुल्ला के पोते हैं और अनुच्छेद 370 के विरोधी हैं और एक न एक दिन उमर अब्दुल्ला बाजी पलट देंगे।
उमर यह जानते हैं, इसलिए 42 सीटें मिलने के बाद अपने पहले बयान में 9 अक्टूबर, 2024 को श्रीनगर में कहा- “अनुच्छेद 370 हमारे दिल में है। पहले भी था, अब भी है, आगे भी रहेगा।” आज हालात दूसरे हैं। दिल्ली में सत्ता पलटेगी। हम उस दिन के इन्तज़ार में हैं। इंशाअल्लाह 370 फिर कायम होगा।
16 अक्तूबर की शपथ के बाद, अपने पहले वक्तव्य में उमर अब्दुल्ला को घाटी में आतंकवाद के खात्मे, आतंकियों और कट्टरपंथियों को चुन-चुन कर कश्मीर से निकालने, अलगाववादियों पर शिकंजा कसने तथा टारगेट किलिंग रोकने और लाखों कश्मीरी पंडितों को उनकी छीनी गई जायदादें व बागात वापिस दिलाने का जिक्र करना चाहिये था। इसके बजाय दिल्ली से पूर्ण राज्य की मांग कर डाली।
उमर अब्दुल्ला के मुख्यमंत्री चुने जाने के बाद भी कश्मीर के ज्ज्वलन्त प्रश्न अनुत्तरित हैं। गजवा-ए-हिन्द वाले बड़ी तेजी के साथ हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, असम व पूर्वोत्तर भारत में डेमोग्राफी बदलने में जुटे हैं। कामयाब हैं। जम्मू में रोशनी एक्ट के सहारे यह कोशिश हुई। आप चाहे नागपंचमी पर दूध पिलायें या रोजमर्रा पिलायें, कश्मीर में कुछ अच्छा होने वाला नहीं। एकमात्र रास्ता डेमोग्राफी बदलने का है। खोखले नारों से कुछ होने वाला नहीं। जरा कश्मीरी पंडितों का सुरक्षित पुनर्वास कर के तो दिखाइये!
गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’