स्मृतिशेष- खुद‌ एक इतिहास थे बाबू कृष्णगोपाल जी !

21 अक्टूबर, 2024 को मुजफरनगर ने एक समृद्ध-प्रतिष्ठित जमींदार परिवार के वयोवृद्ध सदस्य और नगर के प्रमुख समाजसेवी बाबू कृष्णगोपाल रईस को खो दिया। स्व. कृष्ण गोपाल अग्रवाल मुजफ्फरनगर के धनी-मानी जमींदार लाला रामसरण दास जी रईस के पुत्र थे। उनके नाम के साथ भी पारिवारिक प्रतिष्ठा के अनुरूप ‘रईस’ शब्द लिखा जाता था। मुजफ्फरनगर से चन्द किलोमीटर दूर शामली रोड पर स्थित रुकनपुर ग्राम में लाला रामसरण दास रईस की जमींदारी थी। जमींदारी उन्मूलन के पश्चात आज भी अग्रवाल परिवार का बड़ा फार्म हाउस और गोशाला ग्राम रुकनपुर में स्थित है।

बाबू कृष्ण गोपाल अग्रवाल का जन्म 15 अगस्त, 1933 को मेरठ में हुआ। प्राथमिक शिक्षा भी वहीं हुई। बाद में मुजफ्फरनगर के एसडी डिग्री कॉलेज से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। युवा होने पर जमींदारी और खेती का पारिवारिक कार्य संभाला। मुजफ्फरनगर के मौहल्ला मोती महल, मंडी कोहना में परिवार की बड़ी हवेली थी। नगर के पचदरा और फलमंडी में भी जायदाद थी। जिला अस्पताल के सामने मौहल्ला गाजीवाला में भी बड़ी जायदाद (भूमि) है। परिवार के पुरखे ईश्वरभक्त, धर्मपरायण थे जिन्होंने मौहल्ला गाजीवाला में एक शिवालय (मन्दिर) तथा विशाल पक्के तालाब व कुवें का निर्माण कराया था। 50 बीघा से भी अधिक बड़े तालाब में चारों ओर बुर्ज और पक्की सीढ़ियां बनी थीं। राहगीरों और बाहरी लोंगों के ठहरने के लिए एक धर्मशाला भी बनवाई गई थी। कालान्तर में तालाब नगरपालिका की संपत्ति बन गया जिसमें भराव करके अनेक लोगों ने अवैध कब्जे कर वहां मकान तामीर कर लिए।

एक समृद्ध जमींदार परिवार के उत्तराधिकारी होने के बावजूद बाबू कृष्णगोपाल जी सरल, आडम्बरहीन जीवन जिये और धन, पद, जमींदारी का अहंकार उन्हें छू तक नहीं गया था। समाज के गरीब, अमीर, छोटे-बड़े सभी के साथ उनका मृदुल व अपनत्वभरा व्यावहार रहा।

समाजसेवा के साथ-साथ साहित्य में भी उनकी अभिरुचि थी। बहुत कम लोग जानते होंगे कि उन्होंने संवेदनशील कविताएं भी रची थी। उन्होंने पवन प्रेस के नाम से एक प्रिंटिंग प्रेस लगाया था जिससे ‘ललकार’ नामक समाचार पत्र प्रकाशित किया। पिताश्री स्व. राजरूप सिंह वर्मा (संपादक ‘देहात’) के साथ उनके आत्मीय संबंध थे। पूर्व में ‘देहात’ उर्दू भाषा में प्रकाशित होता था। जब हिन्दी में प्रकाशन आरंभ हुआ तो कुछ अंक पवन प्रेस में भी छपे थे। बाबू कृष्णगोपाल जी का व्यावसायिक दृष्टिकोण नहीं था अतः बाद में प्रेस बन्द कर दिया गया। आपकी गाजीवाला मौहल्ला में काफी जमीन थी। पिताश्री ने ‘देहात’ प्रेस, कार्यालय और आवास के लिए बाबूजी से लगभग 500 गज भूमि पच्चास के दशक में क्रय की थी। आज हम वहीं निवास करते हैं।

नगर की अनेक शिक्षण संस्थाओं तथा सामाजिक संगठनों से बाबूजी संबद्ध रहे। मुजफ्फरनगर के डी.ए.वी. डिग्री कॉलेज के सचिव और अध्यक्ष तथा एस.डी. डिग्री कालेज की कार्यकारिणी के सदस्य एवं पदाधिकारी रहे। आर्य विद्या सभा के अध्यक्ष रहे। मुजफ्फरनगर के अनाथ आश्रम के बच्चों की भी समय-समय पर मदद करते रहते हैं। सन्‌ 1985 में रोटरी इंटरनेशनल डिस्ट्रिक्ट 310 (जो विस्तार के बाद डिस्ट्रिक्ट 3110 बना) के पहले गवर्नर बने । प्रशिक्षण के लिए अमेरिका की यात्रा की। आपकी सहधर्मिणी श्रीमती किरण अग्रवाल भी सामाजिक कार्यों में बाबूजी के साथ ही सक्रिय रहती थीं। वे मुजफ्फरनगर इनर ह्वील क्लब की चेयरपर्सन भी रहीं। दुर्भाग्य से 14 फरवरी, 1986 में उनका निधन हो गया। बाबू जी ने उनकी स्मृति में किरण अग्रवाल सेवा समिति ट्रस्ट की स्थापना की। बाबू जी ने उनकी स्मृति में बच्चों का स्कूल स्थापित किया। अपने जीवन में जनसेवा के अनेक कार्य किए। जिला अस्पताल में मरीजों और तीमारदारों की सुविधा के लिए प्याऊ स्थापित कराया था।

परम राष्ट्रभक्त, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और काबुल में निर्वासित भारत सरकार स्थापित करने वाले राजा महेन्द्र प्रताप जी से बाबू कृष्णगोपाल जी का गहरा आत्मीय संबंध था। जब राजा जी ने वृन्दावन में देश के पहले तकनीकी विद्यालय की स्थापना की तो बाबूजी को प्रेम विद्यालय वृन्दावन की कार्य समिति का सदस्य बनाया था।

राजाजी राजपुर रोड (देहरादून) जाते हुए बाबू कृष्णगोपाल जी की मोतीमहल वाली हवेली में रुका करते थे।

बाबूजी ने राजा महेन्द्र प्रताप जी से जुड़े कई संस्मरण मुझे सुनाये थे। उन्होंने बताया कि एक बार वे मुजफ्फरनगर की हवेली में रुके हुए थे। राजाजी को सवेरे तड़‌के चाय पीने का शौक था। रसोइ‌या तब तक आया नहीं था। राजाजी सवेरे-सवेरे उठे और किचन में जाकर स्वयं चाय बनाने लगे। बाबूजी ने बताया कि किचन में बर्तनों की आवाज सुनकर उनकी आंखें खुल गई तो देखा कि राजा जी ख़ुद चाय बना रहे हैं। अपने साथ चलने वाले सेवकों व ड्राइवर के लिए भी चाय बना ली थी। बाबूजी ने बताया कि राजाजी सेवकों से कोई काम नहीं लेते थे। इसलिए आश्रय दे रखा था कि और कहां जा कर नौकरी ढूंढेंगे।

राजा महेन्द्र प्रताप से जुड़ी एक अन्य घटना उन्होंने मुझे सुनाई। बाबू जी ने बताया कि उनके रुकनपुर स्थित फार्म में सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी। वे फार्म में नलकूप (ट्यूबवेल) लगाना चाहते थे किन्तु बिजली लाइन वहां तक आना और कनेक्शन मिलना दुर्लभ था। बिजली के नये कनेक्शन मिलने बिल्कुल बन्द थे। बाबू जी बताते हैं कि उन्होंने राजा जी के समक्ष यह समस्या रखी। राजाजी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. गोविन्द बल्लभ पन्त के नाम पत्र लिखा। पत्र लेकर वे पंतजी से मिले तो उन्होंने सिंचाई व बिजली मंत्री हाफिज मोहम्मद इब्राहिम को बुला कर कहा- ‘राजाजी का हुक्म है, फौरन कनेक्शन दो।’ बाबूजी ने बताया कि जब वे लखनऊ से वापस मुजफ्फरनगर आये और रुकनपुर फार्म पहुंचे तो देखा कि बिजली के खम्भे और तार ट्यूबवेल तक लगे हुए हैं।

उन्होंने बताया कि देश का बंटवारा होने के बाद नवाब लियाकत अली (पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री) मुजफ्फरनगर की अपनी कोठी ‘कहकशां’ बेचना चाहते थे। लालाजी (स्व.रामस‌रणदास रईस) ने यह कोठी 30 हजार रुपये में खरीद ली। बाद में बोले कि हमारी मोतीमहल वाली हवेली और अस्पताल के सामने वाली कोठी रहने को काफी है, यहां बियाबान जंगल में रहकर क्या करेंगे। फिर जितने में ‘कहकशां’ को खरीदा था, उसी कीमत पर लाला रतनलाल मोटर वालों को दे दी।

चालिस के दशक से लेकर अब तक के कालखंड का इतिहास उनकी उंगलियों पर था। मुजफ्फरनगर के अतीत और वर्तमान की अनेक गाथाओं, घटनाओं के वे प्रत्यक्षदर्शी थे, बल्कि वे उस इतिहास के एक अंग थे। सच कहें वे खुद में एक इतिहास थे। उनके जाने से इतिहास का एक अध्याय बन्द हो गया।

गोविन्द वर्मा
संपादक ‘देहात’

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