ज्योति पर्व पर पृथ्वी पर फैले अँधेरे का हरण करने वाले ‘दीप’ की सर्व-प्रथम वन्दना करते हैं:
दीपो ज्योति परंब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनार्दन:। दीपो हरतु मे पापं संध्यादीप नमोस्तुते।।
सनातन संस्कृति दीपक की आराधना- वंदना से ओतप्रोत है:
दीपो नाशयते ध्वांतं धनारोग्य प्रगच्छति
कल्याणाय भवति एव दीपक ज्योतिर्नमोऽस्तुते !
अपनी लेखनी एवं वाणी से मुजफ्फरनगर के नाम को चहुँओर प्रकाशित करने वाले, अपने अभिन्न मित्र श्री प्रकाश सूना जी को दीपावली की शुभकामनायें समर्पित करता हूं। जब वे बिजली विभाग में स्टेनोग्राफर थे, तभी से माँ सरस्वती की आराधना में संलग्न हैं। काव्य, प्रकृति एवं फोटोग्राफी के प्रेमी हैं, अपने नाम को सार्थक करते हुए चहुंओर उजियारा बिखरते हैं, जो प्रकाश-पुंज सदा-सर्वदा रोशनी बरसाता आ रहा हो, उसके साथ ‘सूनापन’ जुड़ ही नहीं सकता, पांच दशकों से मैं तो यही देख रहा हूँ।
सूनाजी के बजाय मै उन्हें प्रकाश जी मान कर एक प्रसिद्ध शायर के शे’र को उद्धृत करता हुआ कह रहा हूँ:
शहर के अंधेरे को इक चराग़ काफ़ी है। सौ चराग़ जलते हैं इक चराग़ जलने से।।
प्रकाश जी कैसा जीवन जिये हैं और जी रहे हैं, ये शे’र उसे प्रतिध्वनित करते हैं:
कभी न होने दिया ताक़-ए-दिल को बे-रौनक।
चराग़ एक बुझा और दूसरा रखा।।
‘प्रकाश’ जी का संघर्षपूर्ण जीवन दर्शाता है:
अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है। मगर चराग़ ने लौ को सँभाल रक्खा है।।
उर्दू शायरों ने प्रकाश-रौशनी, दीपक दीया पर अलग-अलग ढंग से विचारों को अभिव्यक्त किया है। प्रकाश जी की सेवा में कुछ पंक्तियाँ नज़्र हैं:
हर घर, हर दर, बाहर-भीतर
नीचे-ऊपर, हर जगह सुघर
कैसी उजियारी है पग-पग
जगमग जगमग जगमग जगमग !
राष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी की पंक्तियों को याद करते हुए कवि हरिवंश राय बच्चन की कविता के कुछ अंश प्रकाश जी को समर्पित हैं:
आज फिर से तुम बुझा दिया जलाओ !
है कहाँ वह आग जो मुझ को जलाए
है कहाँ वह ज्वाल, मेरे पास आए?
रागिनी ! तुम आज दीपक राग गाओ
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ!
अटल बिहारी वाजपेयी की इन कालजयी पंक्तियों को न प्रकाश जी भूलेंगे, न हम:
आओ फिर से दिया जलायें
भरी दुपहरी में अंधियारा, सूरज परछाईं से हारा, अंतरतम का नेह निचोड़ें, बुझी हुई बाती सुलगाएं। आओ फिर से दिया जलाएं।
महादेवी वर्मा का यह आह्वान :
सब बुझे दीपक जला लूं
घिर रहा तम आज,
दीपक रागिनी अपनी जगा लूं ।।
दीपावली की शुभकामनाएं प्रकाश जी को समर्पित करते हुए कहना है: अभी तो जाग रहे हैं चराग़ राहों के। अभी है दूर सहर थोड़ी दूर साथ चलो।।
गोविन्द वर्मा (संपादक ‘देहात’)