लोकसभा 2024 चुनाव परिणाम क्या दर्शाते हैं? प्रथम यह कि ईवीएम में गड़बड़ी और जिला अधिकारियों पर दबाव का आरोप सौ प्रतिशत झूठा निकला। उत्तर प्रदेश के नतीजों ने सिद्ध किया कि परिवारवाद और जातिवाद के किलों को ढाहना इतना आसान नहीं। इसके लिए सभी राष्ट्रवादी ताकतों को भविष्य में दृढ़ संकल्प और जांनिसारी से काम करना होगा। उत्तरप्रदेश व हैदराबाद का संदेश भी यही है कि तुष्टिकरण का प्रभाव अभी बना हुआ है। इससे लड़ने की नई ताकत जुटानी पड़ेगी।
यह भी स्पष्ट होता है कि देश की चौतरफा तरक्की, विदेशों में भारत की छवि का सुधरना, रेल, सड़क, हवाई मार्गों की कनेक्टिविटी, चंद्रयान, आयुष्मान, गैस सिलेंडर, मुफ्त आवास, बिजली कनेक्शन तथा राममंदिर, काशी विश्वनाथ अपनी जगह सही हैं लेकिन साम्प्रदायिक, जातीय चक्रव्यूह को भेदने के कौशल की धार तेज करनी होगी। यह किसी दल या व्यक्ति के हित पोषण केलिए नहीं अपितु राष्ट्र के व्यापक हित में जरूरी होगा।
भाजपा को आत्ममंथन तो करना ही होगा। कार्यकर्ताओं तथा स्थानीय नेताओं के बीच समन्वय एवं तालमेल की आज महती आवश्यकता है। मुजफ्फरनगर का उदाहरण लीजिए। भाजपा उम्मीदवार की हार में असंतुष्ट या विद्रोही कार्यकर्ताओं का भी छुपा योगदान है।
उत्तर प्रदेश में स्मृति ईरानी से हार का बदला लेकर और अपनी मां की सीट पर बम्पर जीत हासिल करके राहुल गदगद हैं किन्तु यह तो अखिलेश यादव की रणनीति की जीत है। मायावती अब पूरी तरह अनुपयुक्त हो चुकी हैं, इसमें सन्देह नहीं।
नरेन्द्र मोदी का 400 सीट वाला नारा नाकाम रहा लेकिन वे तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं। सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, आंध्र, ओडिशा विधानसभा में एनडीए की शानदार जीत हुई। दक्षिणी राज्यों में पैर जमाये। अगले टर्म में नई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। सबका साथ, सबका विकास, सबका साथ की नीति को किस ढंग से लागू किया जाए, यह सोचना होगा। झूठ, अफवाह, तिकड़मों और सीएए जैसे मुद्दे जोरशोर से उभरेंगे। सड़कों से सदन तक दंगल का माहौल बनाया जाना निश्चित है। पश्चिमी बंगाल, महाराष्ट्र से भी चुनौतियां मिलती रहेंगी। राजस्थान, हरियाणा में भाजपा यह समझाने में नाकाम रही कि हिन्दू जातियों की अस्मिता धर्म की प्रतिष्ठा से बड़ी नहीं है। इंडी गठबंधन या कांग्रेस सरकार बनाने के आंकड़ों तक नहीं पहुंची किन्तु उनका अहंकार और बड़बोलापन अभी से जस का तस है।
गोविंद वर्मा
संपादक ‘देहात’