इलेक्टोरल बॉन्ड से अब तक किस पार्टी को कितना चंदा मिला?

इलेक्टोरल बॉन्ड के आने से राजनीतिक दलों की फंडिंग और पारदर्शी हुई या फिर भ्रष्टाचार को जायज बनना का एक नया रास्ता मिल गया? भारत सरकार जिस ‘पारदर्शी’ तरीके से कानून लेकर आई, वो संविधान और कानून की नजर में कितनी पारदर्शी थी?

सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने आज एक ऐतिहासिक फैसले में इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को असंवैधानिक ठहरतते हुए इस पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी है. कोर्ट ने इस कानून को सूचना के अधिकार का उल्लंघन माना और 2019 के बाद किसको, किसने चुनावी बॉन्ड के जरिये कितने का चंदा दिया, ये सार्वजनिक करने को कहा.

आगामी लोकसभा और दूसरे चुनावों पर भी इस फैसले का असर पड़ सकता है क्योंकि राजनीतिक दलों की भविष्य की फंडिंग भी इस फैसले से प्रभावित होगी. ये जानना दिलचस्प है कि किस तरह इस स्कीम के वजूद में आने के बाद राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का स्वरूप ही पूरी तरह बदल गया. आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं कि भारतीय जनता पार्टी और दूसरे दलों की आय में जमीन-आसमान का अंतर दिखा.

इसको समझने के लिए हमें एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स यानी एडीआर और चुनाव आयोग की रिपोर्टों को खंगालना होगा. एडीआर भारत में चुनाव सुधार को लेकर काम करने वाली संस्था है और राजनीतिक दल, नेताओं के चुनावी हलफनामे को लेकर विश्लेषण जारी करती रही है.

इलेक्टोरल बॉन्ड के 5 साल: किसे कितना मिला?

इसी एडीआर की एक रिपोर्ट कहती है कि चुनावी बॉन्ड की शुरुआत के बाद अगले पांच बरस में कुल बॉन्ड के जरिये जो चंदा राजनीतिक दलों को मिला, उसका 57 प्रतिशत डोनेशन यानी आधे से भी अधिक पैसा भारतीय जनता पार्टी के पार्टी फंड में आया.

फाइनेंसियल ईयर 2017 से लेकर 2021 के बीच इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये कुल करीब 9 हजार 188 करोड़ रूपये का चंदा राजनीतिक दलों को मिला. ये चंदा 7 राष्ट्रीय पार्टी और 24 क्षेत्रीय दलों के हिस्से आया.

इन पांच सालों में चुनावी बॉन्ड से बीजेपी को मिले 5 हजार 272 करोड़, वहीं कांग्रेस पार्टी को इसी दौरान 952 करोड़ रूपये हासिल हुए. जबकि बाकी के बचे लगभग 3 हजार करोड़ रूपये में 29 राजनीतिक दलों को मिलने वाला चंदा था. पांच बरस में इलेक्टोरल बॉन्ड के कुल चंदे का बीजेपी को जहां 57 फीसदी तो कांग्रेस को केवल 10 फीसदी मिला.

भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बाद इस सूची में तीसरे नंबर पर तृणमूल कांग्रेस रही. टीएमसी को इन्हीं पांच बरसों में करीब 768 करोड़ रुपये इलेक्टोरल बॉन्ड से मिले. इन तीनों के अलावा बीजेडी, डीएमके, एनसीपी, आप, जदयू जैसी पार्टियों के चंदे की हिस्सेदारी टॉप 10 में रही.

नवीन पटनायक की पार्टी बीजेेडी को 2017 से 2021 के वित्त वर्ष के दौरान कम से कम 622 करोड़, डीएमके को 432 करोड़, एनसीपी को 51 करोड़, आप को करीब 44 करोड़ और नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड को 24 करोड़ के आसपास चुनावी चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये मिला.

सीपीआई, सीपीएम, बीएसपी और मेघालय की सत्ताधारी पार्टी एनपीपी ऐसी राजनीतिक पार्टियां रहीं जिन्हें 2017 से 2021 के दौरान इलेक्टोरल बॉन्ड से कोई चुनावी चंदा हासिल नहीं हुआ.

2022-23 का हिसाब, किसको क्या मिला?

मार्च 2022 से लेकर मार्च 2023 के बीच कुल 2,800 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड बेचे गए. इस पूरे पैसै का तकरीबन 46 फीसदी हिस्सा भारतीय जनता पार्टी के खाते में आया. पार्टी ने फाइनेंशियल ईयर 2022-23 में अपनी तिजोरी में 1,294 करोड़ रुपये इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये जोड़े.

भारतीय जनता पार्टी को इलेक्टोरल बॉन्ड से मिलने वाला पैसा कांग्रेस की तुलना में लगभग 7 गुना था. कांग्रेस 2022-23 में महज 171 करोड़ रकम पार्टी फंड में जोड़ पाई जबकि इसी पार्टी को उसके पिछले फाइनेंसियल ईयर में 236 करोड़ रुपये चुनावी बॉन्ड के मार्फत मिले.

इस तरह 2021-22 में भाजपा की जो आय 1,917 करोड़ थी, वह 2022-23 बढ़कर 2,361 करोड़ को पहुंच गई. दूसरी तरफ बीजेपी की मुख्य प्रतिद्वंदी कांग्रेस की कुल आय पिछले वित्त वर्ष में 452 करोड़ रह गई जो 2021-22 में 541 करोड़ के करीब थी.

चुनाव आयोग और आरबीआई की चिंताएं

आरबीआई ने एक वक्त ये कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम में राजनीतिक फंडिंग को साफ-सुथरा बनाने का माद्दा तो है मगर शेल कंपनियों के जरिये इसके गलत इस्तेमाल होने की आशंका भी है. आरबीआई ने इलेक्टोरल बॉन्ड को फिजिकल फॉर्म के बजाए डिजिटल तौर पर बेचने की वकालत की थी.आरबीआई को इस बात का डर था कि कहीं ये स्कीम मनी लॉन्ड्रिंग को बढ़ावा न देने लग जाए और काले धन को सफेद करने का जरिया न बन जाए.

वहीं चुनाव आयोग ने निर्दलीय उम्मीदवारों, नई-नवेली पार्टियों के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड उपलब्ध न होने पर और चंदा देने वालों के नाम पता गुमनाम रखने पर कुछ चिंताए जाहिर की थी. इस मामले की सर्वोच्च अदालत में सुनवाई के दौरान इलेक्शन कमीशन ने कहा था कि वो इस तरह की फंडिंग के खिलाफ नहीं है लेकिन चंदा देने वाली कंपनी या व्यक्ति की पहचान गुप्त रखने से चिंतित है.

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