बिहार के सीएम नीतीश कुमार और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की दो साल बाद हुई मुलाकात की सियासी गलियारे में जबर्दस्त चर्चा हो रही है। इस मुलाकात को इसी साल होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से जोड़ कर देखा जा रहा है। हालांकि सच्चाई यह है कि दोनों की अपनी अपनी मजबूरियां रिश्ते के बीच बनी दूरी को कम कर रही है।
दरअसल वर्तमान समय में दोनों को एक दूसरे की जरूरत है। नीतीश बिहार में जदयू का पुराना आधार वापस पाने के लिए बेचैन हैं, जबकि प्रशांत किशोर के पास बिहार के जरिए अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने का कोई विकल्प नहीं है। प्रशांत की कांग्रेस के जरिए बिहार में स्वतंत्र राजनीति कर अपना मजबूत सियासी कद बनाने की योजना परवान नहीं चढ़ पाई। दूसरी ओर नीतीश पूरी ताकत लगाने के बाद भी पुराना आधार वापस पाने की परिस्थिति नहीं बना पा रहे हैं।
क्या है नीतीश की दुविधा?
बीते विधानसभा चुनाव में जो दलित और अति पिछड़ा वर्ग जदयू की ताकत थी, उसमें भाजपा ने घुसपैठ कर ली। भाजपा से हाथ मिलाने के बाद जदयू का मजबूत पसमांदा मुसलमान वोट बैंक भी खत्म हो गया। नीतीश चाहते हैं कि जदयू फिर से इन वर्गों में अपनी पुरानी पैठ कायम करे।
प्रशांत की उलझन
जदयू से विदाई के बाद प्रशांत बीते दो सालों से बिहार की सियासत में अपना कद बढ़ाना चाह रहे हैं। बीते साल उनके कांग्रेस में प्रशांत की शामिल होने की चर्चा थी। मगर कई कारणों से ऐसा नहीं हो पाया। यह सच है कि प्रशांत के कई क्षेत्रीय दलों के साथ अच्छे रिश्ते हैं, मगर इन क्षेत्रीय दलों का बिहार की राजनीति में कोई असर नहीं है। अपनी महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए प्रशांत जदयू को माध्यम बनाना चाहते हैं।
कई रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रशांत नीतीश को विपक्ष का राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने के लिए राजी कर रहे हैं। चूंकि विपक्ष बुरी तरह बिखरा हुआ है। फिर संयुक्त विपक्ष भी जीत का गारंटी नहीं दे सकता। ऐसे में राजनीति के मंझे खिलाड़ी माने जाने वाले नीतीश इसके लिए क्यों राजी होंगे?