इलाहाबाद, 25 सितंबर: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि भूमि अधिग्रहण का मुआवजा किसानों का मूलभूत अधिकार है, यह अनुकंपा नहीं। कोर्ट ने चार दशक तक मुआवजा भुगतान में हुई सरकारी देरी को गंभीर चिंता का विषय बताया और स्पष्ट किया कि तकनीकी आपत्तियों को किसानों के अधिकारों पर हावी नहीं होने दिया जाएगा।
न्यायमूर्ति महेश चंद्र त्रिपाठी और न्यायमूर्ति अमिताभ कुमार राय की खंडपीठ ने मुरादाबाद के उन किसानों को बड़ी राहत दी है, जो लगभग 40 वर्षों से मुआवजे की कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। अदालत ने वेद प्रकाश सैनी समेत नौ याचिकाओं पर कृषि उत्पादन मंडी समिति को निर्देश दिया कि किसानों को नई दर पर मुआवजा छह हफ्तों के भीतर अदा किया जाए। साथ ही कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि भुगतान में कोई और देरी होती है तो वास्तविक भुगतान की तारीख तक 12 फीसदी अतिरिक्त ब्याज देना होगा।
यह मामला उस जमीन से जुड़ा है जिसे 1977 में बाजार निर्माण के लिए अधिग्रहित किया गया था। उस समय तय मुआवजा किसानों को संतोषजनक नहीं लगा और उन्होंने कई वर्षों तक न्याय की लड़ाई लड़ी। 2016 और 2017 में विशेष अदालत ने कुछ किसानों को 108 रुपये प्रति वर्ग मीटर की दर से मुआवजा देने का आदेश दिया था। इसके बावजूद किसान सुप्रीम कोर्ट तक गए। अंततः 21 नवंबर 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने सभी मामलों को हाईकोर्ट में सुनवाई के लिए लौटाया।
अदालत ने सरकारी दलील को खारिज करते हुए कहा कि तकनीकी या समयसीमा संबंधी आपत्तियों के कारण किसानों से उनका हक नहीं छीना जा सकता। 1977 में अधिसूचना जारी होने के बाद 1982 में प्रारंभिक मुआवजा 15.75 रुपये प्रति वर्ग गज तय किया गया था। बाद में कुछ मामलों में ब्याज सहित यह मुआवजा 64 रुपये प्रति वर्ग मीटर किया गया।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि चार दशक से अधिक समय तक किसानों को मुआवजा नहीं मिला, यह न्याय और राज्य के दायित्वों के खिलाफ है। साथ ही, अदालत ने भूमि अधिग्रहण कानून की धारा 28-ए को याद दिलाते हुए कहा कि यह उन किसानों की सुरक्षा के लिए है, जो प्रारंभिक दौर में कानूनी दावा पेश नहीं कर पाए।
हाईकोर्ट ने प्रशासन से उम्मीद जताई कि अधिकारी आदेश का अक्षरशः पालन करेंगे ताकि किसानों को अब और विलंब या उत्पीड़न का सामना न करना पड़े।