इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने जातीय रैलियों पर रोक के मुद्दे पर केंद्र और राज्य सरकार से पूछा है कि वे इन्हें रोकने के लिए क्या ठोस कदम उठा रही हैं। अदालत ने दोनों सरकारों को जवाब दाखिल करने के लिए समय देते हुए अगली सुनवाई अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में तय की है। इससे पहले कोर्ट ने केंद्र को जवाब पेश करने का अवसर दिया था और याचिकाकर्ता को पिछले दस सालों में राजनीतिक दलों द्वारा आयोजित जातीय रैलियों का ब्यौरा हलफनामे के रूप में पेश करने का निर्देश दिया था।
यह आदेश न्यायमूर्ति राजन रॉय और न्यायमूर्ति मंजीव शुक्ल की खंडपीठ ने स्थानीय अधिवक्ता मोतीलाल यादव की जनहित याचिका पर दिया। इस मामले में पहले ही केंद्र, राज्य सरकार, निर्वाचन आयोग और चार प्रमुख राजनीतिक दलों—कांग्रेस, भाजपा, सपा और बसपा—से जवाब मांगा जा चुका है।
याचिका 2013 में दायर की गई थी, जिसमें कहा गया था कि उत्तर प्रदेश में जातिगत आधार पर रैलियों की बाढ़ आ गई है। राजनीतिक दल ब्राह्मण रैली, क्षत्रिय सम्मेलन और वैश्य सम्मेलन जैसे आयोजन कर रहे हैं, जिन्हें रोकना जरूरी है।
गौरतलब है कि 11 जुलाई 2013 को कोर्ट ने जातीय आधार पर होने वाली राजनीतिक रैलियों पर पूरे प्रदेश में तत्काल रोक लगा दी थी और संबंधित पक्षों को नोटिस भी जारी किया था। याचिकाकर्ता का कहना था कि ऐसी रैलियां समाज में वैमनस्य फैलाती हैं और सामाजिक सौहार्द को नुकसान पहुंचाती हैं, जो संविधान की भावना के खिलाफ है।
बताया जाता है कि 2013 के लोकसभा चुनाव से पहले बसपा ने करीब 40 जिलों में ब्राह्मण भाईचारा सम्मेलन किए थे, जबकि सपा ने लखनऊ में इसी तरह का सम्मेलन आयोजित किया था और मुस्लिम सम्मेलन भी किया था।