लंबित आपराधिक मामलों में देरी मानसिक पीड़ा के समान: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि किसी आपराधिक मामले को अनुचित रूप से लंबा खींचना मानसिक पीड़ा के समान है और आरोपी के लिए मानसिक कारावास जैसा प्रभाव डालता है। जस्टिस एन.वी. अंजारिया और ए.एस. चंदुरकर की बेंच ने यह टिप्पणी उस समय की जब उन्होंने 75 वर्षीय महिला को भ्रष्टाचार के मामले में सुनाई गई सजा को घटाकर केवल पहले से जेल में बिताई गई अवधि तक सीमित कर दिया।

यह महिला केंद्रीय उत्पाद शुल्क विभाग में निरीक्षक रह चुकी हैं और 22 साल पुराने भ्रष्टाचार मामले में दोषी पाई गई थीं। सुप्रीम कोर्ट ने दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए उनकी सजा को 31 दिन की पहले से भुगती गई कैद तक सीमित किया, लेकिन जुर्माने की राशि 25,000 रुपए कर दी।

300 रुपए की रिश्वत का आरोप:
सितंबर 2002 में महिला पर 300 रुपए की रिश्वत लेने का आरोप लगा था। ट्रायल कोर्ट ने उन्हें भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत दोषी ठहराकर एक साल की सजा सुनाई थी, जिसे अगस्त 2010 में मद्रास हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान महिला के वकील ने दोषसिद्धि को चुनौती नहीं दी, बल्कि सजा में कमी की मांग की, यह बताते हुए कि महिला बुजुर्ग, विधवा और मामला 22 साल से लंबित है।

कोर्ट का दृष्टिकोण:
बेंच ने कहा कि मुकदमे का अनुचित रूप से लंबा खिंचना आरोपी के लिए लगातार तनाव और मानसिक वेदना का कारण बनता है। अदालत ने यह भी कहा कि दंड तय करने में दंडात्मक, निवारक और सुधारात्मक सिद्धांतों का महत्व है, लेकिन आधुनिक न्यायशास्त्र में सुधारात्मक दृष्टिकोण अधिक स्वीकार्य है।

जुर्माना बढ़ाया गया:
महिला द्वारा पहले ही भुगती गई 31 दिन की कैद को पर्याप्त मानते हुए कोर्ट ने इसे अंतिम सजा घोषित किया और जुर्माना 25,000 रुपए कर दिया। अदालत ने निर्देश दिया कि यह राशि 10 सितंबर तक जमा कराई जाए, अन्यथा मूल सजा लागू होगी और महिला को जेल में आत्मसमर्पण करना होगा।

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