भाकियू अराजनीतिक का पुनर्जन्म !

एक बार फिर भारतीय किसान यूनियन का विभाजन हो गया। कुछ चैनलों ने नरेश टिकैत, राकेश टिकैत को भाकियू से बाहर करने की ख़बर प्रसारित कर भ्रम फ़ैलाने की कोशिश की लेकिन वास्तविकता यह है कि भाकियू के सक्रिय पुराने नेताओं ने टिकैत बंधुओ की नीति-रीति से नाराज़ होकर भारतीय किसान यूनियन (अराजनीतिक) के गठन की लखनऊ में घोषणा की है। भाकियू की आंतरिक कलह की वजह से पहले भी ठाकुर पूरणसिंह, भानु प्रताप सिंह, चौधरी वीरेंद्र सिंह आदि अनेक नेताओं ने भाकियू से किनारा कर लिया था। भाकियू के स्तम्भ रहे गुलाम मौहम्मद जौला जिनका कल ही दु:खद निधन हुआ, भी भाकियू की सक्रियता से अलग हो गए थे। हाई कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस महावीर सिंह (एलम) तथा चौधरी सुन्दर सिंह पूर्व जिला गन्ना अधिकारी (सरसावा) ने तो चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के सामने ही भाकियू से नाता तोड़ लिया था। किसी बड़े आंदोलन या संगठन में लोगो के आने-जाने का सिलसिला लगा ही रहता है।

बुनियादी सवाल यह है कि क्या भाकियू किसान एकता और किसान हितों की रक्षा की नीति पर अडिग है और वह अपना अराजनीतिक स्वरूप बनाये रख कर सभी जातियों और धर्मों के किसानों को साथ लेकर चल रही है? कांग्रेस, सपा, अकालीदल आदि राजनीतिक दलों की भांति क्या यहां भी पारिवारिक एकाधिकार का माहौल तो नहीं बन गया है? जिस प्रकार किसी राजनीतिक दल में लम्बे समय तक रहने वाला पार्टी छोड़ने पर पार्टी की खामियों की लिस्ट मीडिया के सामने पेश करने लगता है और दल का मुखिया पार्टी छोड़ने वाले की अनेक कमियां गिनाने लगता है तथा उसे पार्टी से निष्कासित करने की घोषणा कर देता है, ठीक वैसा ही भाकियू में हो रहा है। निश्चित है इससे बाबा टिकैत की आत्मा दु:खी होती होगी क्योंकि उन्होंने आजादी के बाद देश के किसानों को पहली बार एक वर्ग के रूप में एकजुट कर नया इतिहास रचा था।

आज भी कृषि प्रधान देश के किसानों के सामने नाना समस्याएं और संकट मुँह बाये खड़े हैं। किसान संगठनों तथा किसानों के नेताओं को समस्याओं का रचनात्मक तरीकों से हल निकालने के लिए सक्रिय होना होगा। टकराव से कुछ समय के लिए चर्चा व पब्लिसिटी मिल सकती है, जिसका निजी लाभ तो उठाया जा सकता है किन्तु किसानों का सामूहिक हित नहीं साधा जा सकता। सरदार वी एम सिंह बिना हंगामा और कोहराम मचाये लम्बे समय से गन्ना किसानों की लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाने में जुटे हैं। ऐसे ही किसान संगठनो को आतंरिक द्वंद्व को छोड़ मुद्दा आधारित नीतियों पर संघर्ष करना चाहिए। व्यक्तिगत हितों या क्षणिक प्रसिद्धि के लिए नहीं।

गोविन्द वर्मा
संपादक देहात

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