जम्मू:फिल्म द कश्मीर फाइल्स देखकर लोग हुए भावुक

घर, रिश्तेदारों, बचपन के दोस्तों को छोड़ रातों रात रोते विलखते विस्थापित हुए कश्मीरी पंडित समुदाय की 90 के दशक की सभी कड़वी यादें शुक्रवार को रिलीज हुई हिन्दी फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के साथ ताजा हो गई। बेशक उस समय विस्थापित समुदाय की आवाज इस कदर दब गई की उनकी चिखने की आवाज भी राजनेताओं के वोट बैंक के नीचे दब गई।

लेकिन निर्माता विवेक अग्निहोत्री, पल्वी जोशी ने उस दबी आवाज को इस फिल्म के माध्यम से इतने जोरदार तरीके से उजागर किया है कि जो भी इस फिल्म को देखकर लौट रहा है।

उसे लग रहा है कि कश्मीरी पंडित समुदाय के साथ इतना गलत होता रहा और कोई उनकी आवाज तक सुनने वाला क्यों नहीं था। फिल्म कहीं न कहीं यह भी साबित करती दिखी कि बेकसूर लोग कैसे वहुसंख्यकों के शिकार बनते रहे और पीडि़त होने वालों पर ही उल्टे आरोप लगते रहे। दीवारों पर लिखे नारे कैसे आज भी कश्मीर पंडित समुदाय को अंदर ही अंदर खाए जा रहे हैं।

यह अनुपम खेर की अभिनय क्षमता पीड़ितों से न्याय करती दिख रही है।पहला शो देखने वालों में अधिकतर कश्मीरी पंडित ही दिखे। फिल्म के चलते हाल में दर्शकों की सिसकियां यह दर्शाने के लिए काफी थी कि फिल्म किस कदर दिलों को छूने वाली है।फिल्म में अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती, दर्शन कुमार चिन्मय पांडे, भाषा सुंबली, सौरव वर्मा ने अपनी भूमिका से फिल्म में जान डालने का काम किया है।

विस्थापित हुए इन कश्मीरी पंडितों की विस्थापित शिविरों की दुर्दशा भी बयां करती दिख रही है।निर्देशक विवेक अग्निहोत्री ने फिल्म के माध्यम से कश्मीरी इतिहास और पौराणिक कथाओं की बात करते हैं।केसी सिनेमा से देखकर लौटी दुलहारी हंडु ने कहा कि फिल्म उनकी पीड़ा और आवाज को सामने लेकर आई है। फिल्म में दिखाया कि किस तरह राजनीतिक कारणों से कश्मीरी पंडितों के नरसंहार को सालों साल दबा कर रखा गया।

फिल्म 1990 से शुरू होती है और मौजूदा साल तक पहुंचती है। दिल्ली में पढ़ रहा कृष्णा, दर्शन कुमार अपने दादाजी पुष्कर नाथ पंडित, अनुपम खेर की आखिरी इच्छा पूरी करने के लिए श्रीनगर आता है।कश्मीर के अतीत से बेखबर वो अपने परिवार से जुड़ी सच्चाई की खोज में लग जाता है। यहां उसकी मुलाकात दादाजी के चार दोस्तों से होती है।

उनके बीच धीरे-धीरे कश्मीरी पंडितों के पलायन और नरसंहार की चर्चा शुरू होती है और कहानी पहुंचती है 1990 में। दिखाया गया कि किस तरह कश्मीर की गलियों में आतंकी बंदूकें लेकर घूमते हैं और कश्मीरी पंडितों को तलाश कर-कर मारते हैं। वे किसी को नहीं छोड़ते। फिल्म कश्मीरी पंडितों पर हुई तमाम हिंसा को दिखाती है।

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