‘भारत ह्रदय सम्राट-नेताजी सुभाष चंद्र बोस’
आजादी के 75वें अमृत महोत्सव की सबसे अहम खबर यह है कि सरकार ने गणतंत्र दिवस समारोह का आगाज़ 24 जनवरी के बजाय नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन 23 जनवरी से करने का निर्णय लिया है। यह कठोर विसंगति रही कि जिस वीर राष्ट्रभक्त सेनानी ने 85,000 सैनिकों की सेना गठित कर 21 अक्टूबर 1943 को अंडमान निकोबार द्वीप समूहों को मुक्त कर आजाद भारत का झंडा लहरा दिया हो, जिस आजाद भारत की सरकार को 11 देशों ने मान्यता प्रदान कर दी हो, जिस सरकार की अपनी करेंसी, अपने डाक-टिकट, अपना रेडियो स्टेशन, विदेशों में अपने राजदूत हों, अंग्रेजों द्वारा सत्ता हस्तांतरण के बाद उसकी स्मृति को क्षीण करने या भुलाने की कोशिशें की गई हों उससे दु:खद और क्या हो सकता है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा की जानी चाहिये कि उन्होंने लाल किला दिल्ली में नेताजी की स्मृति में संग्रहालय स्थापित कराया, उनके जन्मदिन से गणतंत्र दिवस समारोह आरंभ करने का फैसला लिया और अब दिल्ली में इंडिया गेट पर नेताजी की भव्य प्रतिमा स्थापित करा रहे हैं।
नेताजी ने महसूस कर लिया था कि अंग्रेज अनुनय विनय और कोरी बातफरोशी से भारत को छोड़कर जाने वाले नहीं है। उन्होंने 85,000 सैनिकों की सशक्त सेना गठित कर विश्व में एक विलक्षण उदाहरण स्थापित किया। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा का नारा देकर उन्होंने करोड़ों भारतीयों के हृदयों को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आंदोलित कर दिया। उनकी सेना में कैप्टन मोहन सिंह, रास बिहारी बोस, निरंजन सिंह गिल, जनरल शाहनवाज जैसे लोगों के साथ पूरे भारत के कोने-कोने से आये युवक आजाद हिंद फौज में शामिल हुए। मुजफ्फरनगर जनपद के भी अनेक लोग नेताजी के आह्वान पर आजाद हिन्द फौज में शामिल हुए। इनमे कई लोग ऐसे थे जो ब्रिटिश सेना से विद्रोह करके नेताजी के साथ खड़े हुए। मुझे स्मरण है कि जब मेरी अवस्था 8-10 वर्ष की थी तब आजाद हिंद फौज में शामिल कुछ लोग पिताश्री ‘राजरूप सिंह वर्मा’ से अक्सर मिलने आते रहते थे। उनके नाम-गाम मुझे याद नहीं। वे नेताजी के विषय में बातें करते रहते थे। मुजफ्फरनगर के ग्राम बिटावदा के बारूसिंह, एलम के विशम्भर सिंह पंवार, पंजोखरा के पलटू तथा गढ़ीपुख्ता के ओमप्रकाश ने आजाद हिंद फौज में शामिल होकर देश की आजादी में महत्वपूर्ण योगदान दिया। नेताजी की महान् उपलब्धियों व उत्कट देशभक्ति तथा उनके विषय में कमेटियां व आयोग बनाने के बाद भी मिथ्या धारणाओं का अभी तक अंत नहीं हुआ है। आशा है कि वह समय आ गया है जब इतिहास पुरुषों का सच्चा इतिहास नई पीढ़ी के सामने आएगा।
गोविंद वर्मा
संपादक ‘देहात’