वह अनोखा रक्षा बंधन !

रक्षा बंधन यानी राखी एक पवित्र त्यौहार है जो कर्त्तव्यों एवं जिम्मेदारियों के पवित्र धागों से बंधा है। कोई निबंध लिखने नहीं जा रहा हूँ जो इस पर्व की महत्ता या इसके तत्वों अथवा विशेषताओं को रेखांकित करूं। राखी पर्व पर मै अपनी किशोर अवस्था की कुछ यादों को ताजा कर रहा हूँ।

पिताश्री राजरूप सिंह वर्मा (संपादक देहात) रूढ़िवादी व परम्परावादी शख्स नहीं थे। वे स्वतंत्र एवं प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। हमारे आवास का पिछला द्वार मन्दिर के ठीक सामने खुलता था किन्तु वे मन्दिर में कभी पूजा-पाठ, जलारोहण आदि के लिए नहीं गये। अलबत्ता मन्दिर के पुजारी, जिनको वे फक्कड़ बाबा कहते थे, उनसे मिलने या हालचाल पूछते चले जाते थे। फक्कड़ बाबा का परिवार या बाल-बच्चा नहीं था। पिताजी उनके गर्मी सर्दी के कपड़ो तथा इलाज आदि की व्यवस्था करते थे। उनके चोला छोड़ने पर अपनी गाड़ी से पार्थिव शरीर को विसर्जन जल समाधि के लिए शुक्रताल भेजा था। फक्कड़ बाबा के बाद ग्राम धौलरा के एक वयोवृद्ध ब्राह्मण मन्दिर के पुजारी बने। वे भी अविवाहित थे। पिताश्री उन्हें ऋषि जी कह कर बुलाते थे। उनके लिए घर से एक गिलास दूध प्रतिदिन भेजा जाता था। मौसम के कपड़े भी भिजवाते थे। राखी का पर्व आने पर फक्कड़ ‌बाबा और ऋषि जी सें रक्षाबंधन यानी राखी बड़े प्रेम से बंधवाते थे।

मौहल्ले में रहमती नाम की मुस्लिम मनिहारिन एवं एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार की वृद्धा जो विधवा थी और नगरपालिका की पाठशाला में शिक्षिका थी, उन्हें पिताश्री ने बहिन बनाया हुआ था। दोनों से रक्षाबंधन पर प्रेम से राखियां बंधवाते थे तथा अपने जीते जी सदा इन मुंहबोली बहिनों का हर प्रकार से ध्यान रखते थे। रक्षाबंधन पर राखी बांधने आने में विलंब हो जाता तो हमें कहते- जाओ देखो तुम्हारी बुवा अभी तक क्यूं नहीं आई।

मौहल्ला आनंदपुरी में एक गरीब ब्राह्मण थे जो चने बेचकर गुज़ारा करते थे। पिताश्री के पास उनका आना जाना था। पंडित जी को पिताजी ने कह रखा था कि किसी दिन आओ या न आओ, रक्षाबंधन पर जरूर आया करो। रक्षा बंधन पर उनसे भी राखी बंधवाते थे। कहते थे- गरीब ब्राह्मण है, मेहनत से जीविका चलाता है। इसका सम्मान करना जरुरी है।

अब न पिताश्री है न फक्कड़ बाबा, न ऋषिजी, न पंडित जी और न उनकी मुंह बोली बहिनें। रक्षाबंधन पर उनकी याद आई तो पुरानी यादें ताजा हो गई।

गोविंद वर्मा
संपादक ‘देहात’

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